एक बार नंदकिशोर ने सनतकुमारों से कहा कि चौथ की चंद्रमा के दर्शन करने से जो लांछन लगा था, वह सिद्धि विनायक व्रत करने से ही दूर हुआ था. ऐसा सुनकर सनतकुमारों को आश्चर्य हुआ. उन्होंने पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण को कलंक लगने की कथा पूछी तो नंदकिशोर ने बताया.
एक बार जरासन्ध से युद्ध ना करने का विचार करके श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य नगरी बसाकर रहने लगे. इसी नगरी का नाम द्वारिकापुरी था. द्वारिकापुरी में निवास करने वाले सत्राजित यादव ने सूर्यनारायण की आराधना की. तब भगवान सूर्य ने उसे नित्य आठ सेर सोना देने वाली स्यमन्तक नामक मणि अपने गले से उतारकर दे दी. मणि पाकर सत्राजित यादव जब सभा में गया तो श्रीकृष्ण ने उस मणि को सुरक्षा की दृष्टि से राजकोष में देने की इच्छा व्यक्त की. सत्राजित ने वह मणि श्रीकृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजित को दे दी. एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर चढ़कर शिकार के लिए गया. वहाँ एक शेर ने उसे मार डाला और मारने के प्रयास में मणि
शेर के पँजे में फँस गई. रास्ते में रामायणकालीन रीछों के राजा जामवन्त ने उस सिंह को मारकर मणि प्राप्त कर ली, गुफा में लाकर मणि उन्होनें अपनी पुत्री जाम्बवंती को दे दी.
जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से नहीं लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ. उसने सोचा, श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा. अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमन्तक मणि छीन ली है. इस लोक-निन्दा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए. वहाँ पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए. रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जामवन्त की गुफा पर पहुँचे और गुफा के भीतर चले गए. वहाँ उन्होंने देखा कि जामवन्त की पुत्री उस मणि से खेल रही है. श्रीकृष्ण को देखते ही जामवन्त युद्ध के लिए तैयार हो गया. युद्ध छिड़ गया, श्रीकृष्ण और जाम्बवंतजी के बीच 21 दिन तक मल्लयुद्ध हुआ. इक्कीस दिन तक लगातार युद्ध करने पर भी जामवन्त श्रीकृष्ण को पराजित न कर सके. तब उन्होनें सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था. यह पुष्टि होने पर उन्होनें अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी. श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो श्रीकृष्ण ने मणि वापस सत्राजित को दे दी. सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ. इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया.
कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए. तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली. सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तो वे तत्काल द्वारिका पहुँचे. वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए. इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे. यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला. श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई. बलरामजी भी वहाँ पहुँचे, श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है. बलरामजी को विश्वास न हुआ, वे अप्रसन्न होकर इंद्रप्रस्थ चले गए. श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर, यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया. श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहाँ नारदजी आ गए. उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन किया था. इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है.
श्रीकृष्ण ने पूछा- चौथ के चंद्रमा को ऐसा क्या हो गया है जिसके कारण उसके दर्शनमात्र से मनुष्य कलंकित होता है. तब नारदजी बोले- एक बार श्रीगणेशजी ब्रह्मलोक से लौट रहे थे, मार्ग में उनके विचित्र व्यक्तित्व को देखकर चंद्रमा ने उपहास किया. इस पर गणेशजी ने रुष्ट होकर चंद्रमा को शाप दिया कि आज से कोई तुम्हारा मुख नहीं देखना चाहेगा. शाप देकर गणेशजी अपने लोक चले गए और चंद्रमा मानसरोवर की कुमुदिनियों में जा छिपा. चंद्रमा के बिना प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ. उनके कष्ट को देखकर ब्रह्माजी की आज्ञा से चन्द्रमा ने कठोर व्रत किया व सारे देवताओं ने भी प्रार्थना की, चंद्रमा के व्रत व देवताओं कीप्रार्थना से प्रसन्न होकर गणेशजी ने वरदान दिया कि अब चंद्रमा शाप से मुक्त तो हो जाएगा, पर भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को जो भी चंद्रमा के दर्शन करेगा, उसे चोरी आदि का झूठा लांछन जरूर लगेगा. किन्तु जो मनुष्य प्रत्येक द्वितीया को दर्शन करता रहेगा, उसे लांछन का प्रभाव कम हो जाएगा तथा इस चतुर्थी को सिद्धि विनायक व्रत करने से सारे दोष छूट जाएँगे. यह सुनकर देवता अपने-अपने स्थान को चले गए। इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चंद्रमा का दर्शन करने से आपको यह कलंक लगा है. तब श्रीकृष्ण ने कलंक से मुक्त होने के लिए यही व्रत किया था.
* चंद्रदर्शन दोष के उपाय
प्रत्येक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को चन्द्रदर्शन के पश्चात् व्रती को अर्घ्य के बाद आहार लेने का निर्देश है, इसके पूर्व नहीं. किंतु भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को रात्रि में चन्द्र-दर्शन (चन्द्रमा देखने को) निषिद्ध किया गया है. जो व्यक्ति इस रात्रि को चन्द्रमा को देखते हैं उन्हें झूठा-कलंक प्राप्त होता है. ऐसा शास्त्रों का निर्देश है. यह अनुभूत भी है. अत: बिना देखे ही चंद्रर्घ्य दें.
इस गणेश चतुर्थी को चन्द्र-दर्शन करने वाले व्यक्तियों को उक्त परिणाम अनुभूत हुए, इसमें संशय नहीं है. यदि जाने-अनजाने में चन्द्रमा दिख भी जाए तो इसके निवारण के निमित्त श्रीमद्भगवत के 10वें स्कंध के 56-57वें अध्याय में उल्लेखित "स्यमंतक मणि की चोरी" की कथा का श्रवण अवश्य कर लेना चाहिए. (कथा ऊपर बताई जा चुकी है)
निम्न मंत्र का पाठ 21. 54, 108 बार जप अवश्य कर लेना चाहिए- (इस एक श्लोक में सारी कथा समाहित है)
' सिहः प्रसेनमवधीत् , सिंहो जाम्बवता हतः।
सुकुमारक मा रोदीस्तव , ह्येष स्यमन्तकः ॥'
अ.श.वशिष्ठ
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