Tuesday 11 December 2012

* दो सीख *


               पिछले दिनों एक पुराने साथी ने इस बात का उलाहना दिया कि इस बार मैनें दिवाली की बधाई का फोन नहीं किया | एकबारगी तो जवाब देने का मन नहीं हुआ, लेकिन जब उससे कंट्रोल ही नहीं हुआ तो मैनें सोचा... आज तो इसका मुँह बंद करना ही पडेगा | वो जब बोल चुका तो मैनें कहा, हम पिछले कई सालों से कॉंन्टेक्ट में हैं, इन सालों में होली, दिवाली, सकरात(संक्रांति), तेरा बर्थ-डे, तेरी शादी की सालगिराह, यहाँ तक कि तेरी श्रीमति के बर्थ-डे तक पे मैनें कॉल किया, कभी-कभी तो ऐसा भी हुआ है कि तेरे बर्थ-डे पे सिर्फ़ मैनें ही कॉल किया था; अब तू ज़रा मुझे याद करके बता के तूने आखरी बार कब मुझे कॉल किया था? बेचारे की बोलती बंद हो गई, मैनें थोडी रियायत बरती और पूछा, चल ये ही बता दे कि मेरा बर्थ-डे कब आता है? इस बार बेचारे का मुँह लटक गया |

               थोडी देर शांति छाई रही, कुछ देर बाद मैंनें कहा, अगर मैं तुझसे पूछुं के तूने कॉल क्यूं नहीं किया, तो तेरा जवाब क्या होगा? यही न कि बिज़ी था, इसलिए ध्यान नहीं रहा, तो मेरे भाई, जब तू इतना ही बिज़ी है तो मैं तुझे फोन करके डिस्टर्ब क्यों करुँ? इतना सुनने के बाद वो कुछ ना बोल पाया |


 उसकी बोलती तो बंद हो गई लेकिन इस घटना ने मुझे दो सीख दी,
पहली, किसी को उलाहना देने या बुरा कहने से पहले अपने अंदर भी झांक लो, कहीं वो कमियाँ तुम्हारे अंदर भी तो नहीं;
और दूसरी, रिश्ते निभाने से निभते हैं, बहाने ढूंढने से नहीं, टाईम किसी के पास नहीं है, सब अपनी-अपनी लाइफ में बिज़ी हैं, रिश्तों के लिए टाईम निकालना पडता है, किसी ने कहा भी है, ''रिश्ते बना उतना आसान है जितना मिट्‍टी से मिट्‍टी पर मिट्‍टी लिखना और निभाना उतना ही मुश्किल है जितना पानी से पानी पर पानी लिखना |



''हरिहरॐ''
प्रेम.शांति.आनंद

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