Saturday 9 March 2013

महाशिवरात्रि : 10-3-13


!! तत्सवितुर्वरेण्यं !!
!! ॐ श्री गुरवे नम: !!



               शिवरात्रि अथवा महाशिवरात्रि सनातन धर्म का एक प्रमुख त्योहार है। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। महाशिवरात्रि पर रुद्राभिषेक का बहुत महत्त्व माना गया है और इस पर्व पर रुद्राभिषेक करने से सभी रोग और दोष समाप्त हो जाते हैं।

               पौराणिक ग्रंथों में कहा गया है कि विश्व के प्रत्येक पदार्थ में दो तत्व- अग्नि और सोम मुख्य रूप से रहते हैं। अग्नि प्राण-तत्व है और सोम प्राण का आयतन। आयतन अर्थात शरीर। शरीर में ही प्राणों का संचार होता है। संवत्सर में छह ऋतुएं होती हैं। ये ऋतुएं अग्नि (गर्मी) और सोम (शीतलता) के कारण दो भागों में विभक्त होती हैं। वसंत, ग्रीष्म और वर्षा अग्नि-ऋतुएं हैं तथा शरद, हेमंत और शिशिर सोम-ऋतुएं हैं। अग्नि को पुरुष और सोम को स्त्री माना गया है। इन दोनों के मेल से सृष्टि का उद्भव होता है।

               जब अग्नि की वृद्धि होती है, तब सोम की मात्रा कम हो जाती है और सोम की मात्रा में वृद्धि होती है, तब अग्नि की मात्रा कम हो जाती है। लेकिन एक समय ऐसा भी आती है, जिसमें अग्नि और सोम की मात्रा एक समान हो जाती है। यह वसंत ऋतु है। वेदों की मान्यता है कि यह अग्नि और सोम का समागम काल होता है। वेदों में कहा गया है कि अग्नि स्वयं शिव हैं- यो वै रुद्र: सो अग्नि:। वहीं सोम मां उमा पार्वती हैं। वेद कहता है - श्रीर्वैसोम:। शिव और पार्वती के मिलन के समय दोनों का ताप एक जैसा हो जाता है। यही वसंत सम्पात है। यही समय है शिवरात्रि का। इसे ही शिव-पार्वती के विवाह का दिन माना जाता है। उनके मिलन और विश्व की उत्पत्ति का दिन माना जाता है।


* शिवरात्रि क्या है?


शिवरात्रि वह रात्रि है जिसका शिवतत्त्व से घनिष्ठ संबंध है। भगवान शिव की अतिप्रिय रात्रि को शिव रात्रि कहा जाता है। शिव पुराण के ईशान संहिता में बताया गया है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए-

फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। 
शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तिथि में चन्द्रमा सूर्य के समीप होता है। अत: इसी समय जीवन रूपी चन्द्रमा का शिवरूपी सूर्य के साथ योग मिलन होता है। अत: इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने से जीव को अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यही शिवरात्रि का महत्त्व है। महाशिवरात्रि का पर्व परमात्मा शिव के दिव्य अवतरण का मंगल सूचक पर्व है। उनके निराकार से साकार रूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि कहलाती है। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर आदि विकारों से मुक्त करके परमसुख, शान्ति एवं ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।


* पौराणिक कथाएँ

महाशिवरात्रि के महत्त्व से संबंधित तीन कथाएँ इस पर्व से जुड़ी हैं:-

प्रथम कथा
एक बार मां पार्वती ने शिव से पूछा कि कौन-सा व्रत उनको सर्वोत्तम भक्ति व पुण्य प्रदान कर सकता है? तब शिव ने स्वयं इस शुभ दिन के विषय में बताया था कि फाल्गुन कृष्ण पक्ष के चतुर्दशी की रात्रि को जो उपवास करता है, वह मुझे प्रसन्न कर लेता है। मैं अभिषेक, वस्त्र, धूप, अर्ध्य तथा पुष्प आदि समर्पण से उतना प्रसन्न नहीं होता, जितना कि व्रत-उपवास से।


द्वितीय कथा
इसी दिन, भगवान विष्णु व ब्रह्मा के समक्ष सबसे पहले शिव का अत्यंत प्रकाशवान आकार प्रकट हुआ था। ईशान संहिता के अनुसार – श्रीब्रह्मा व श्रीविष्णु को अपने अच्छे कर्मों का अभिमान हो गया। इससे दोनों में संघर्ष छिड़ गया। अपना महात्म्य व श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए दोनों आमादा हो उठे। तब शिव ने हस्तक्षेप करने का निश्चय किया, चूंकि वे इन दोनों देवताओं को यह आभास व विश्वास दिलाना चाहते थे कि जीवन भौतिक आकार-प्रकार से कहीं अधिक है। शिव एक अग्नि स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए। इस स्तम्भ का आदि या अंत दिखाई नहीं दे रहा था। विष्णु और ब्रह्मा ने इस स्तम्भ के ओर-छोर को जानने का निश्चय किया। विष्णु नीचे पाताल की ओर इसे जानने गए और ब्रह्मा अपने हंस वाहन पर बैठ ऊपर गए। वर्षों यात्रा के बाद भी वे इसका आरंभ या अंत न जान सके। वे वापस आए, अब तक उनक क्रोध भी शांत हो चुका था तथा उन्हें भौतिक आकार की सीमाओं का ज्ञान मिल गया था। जब उन्होंने अपने अहम् को समर्पित कर दिया, तब शिव प्रकट हुए तथा सभी विषय वस्तुओं को पुनर्स्थापित किया। शिव का यह प्राकट्य फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को ही हुआ था। इसलिए इस रात्रि को महाशिवरात्रि कहते हैं।


तृतीय कथा
इसी दिन भगवान शिव और आदि शक्ति का विवाह हुआ था। भगवान शिव का ताण्डव और भगवती का लास्य नृत्य दोनों के समन्वय से ही सृष्टि में संतुलन बना हुआ है, अन्यथा ताण्डव नृत्य से सृष्टि खण्ड- खण्ड हो जाये। इसलिए यह महत्त्वपूर्ण दिन है।


* बेल (बिल्व) पत्र का महत्त्व

बेल (बिल्व) के पत्ते श्रीशिव को अत्यंत प्रिय हैं। शिव पुराण में एक शिकारी की कथा है। एक बार उसे जंगल में देर हो गयी, तब उसने एक बेल वृक्ष पर रात बिताने का निश्चय किया। जगे रहने के लिए उसने एक तरकीब सोची- वह सारी रात एक-एक कर पत्ता तोडकर नीचे फेंकता जाएगा। कथानुसार, बेलवृक्ष के ठीक नीचे एक शिवलिंग था। शिवलिंग पर प्रिय पत्तों का अर्पण होते देख, शिव प्रसन्न हो उठे। जबकि शिकारी को अपने शुभ कृत्य का आभास ही नहीं था। शिव ने उसे उसकी इच्छापूर्ति का आशीर्वाद दिया। यह कथा न केवल यह बताती है कि शिव को कितनी आसानी से प्रसन्न किया जा सकता है, बल्कि यह भी कि इस दिन शिव पूजन में बेल पत्र का कितना महत्त्व है।


$*$ रात्रि में चारों प्रहरों की पूजा में अभिषेक जल में पहले पहर में दूध, दूसरे में दही, तीसरे में घी और चौथे में शहद को मुख्यत: शामिल करना चाहिए। $*$



* शिवरात्रि पर चार प्रहर पूजन काल :- (जयपुर के अक्षांश-रेखांश के आधार से)

प्रथम - सायं 6:29 से रात्रि 9:32 तक
द्वितीय - रात्रि 9:33 से 12:36 तक
तृतीय - मध्यरात्रि बाद 12:37 से 3:40 तक
चतुर्थ - मध्यरात्रि बाद 3:41 से प्रातः 6:45 तक

अथवा स्थानिक चौघडिये भी ग्राह्य हैं |


                                                                                                   सभी को शुभकामनाएं...