Thursday 30 August 2012

भाद्रपद अधिक मास पूर्णिमा : 31.08.2012


               इस वर्ष 2012 में भाद्रपद माह में अधिकमास पड़ रहा है. इस माह की पूर्णिमा का विशेष महत्व माना जाता है. इस माह में आने वाली पूर्णिमा के दिन स्नानादि कर्म से निवृत होकर भगवान सूर्यनारायण का पुष्प, अक्षत तथा लाल चंदन से पूजन करें. फिर शुद्ध घी, गेहूँ और गुड. के मिश्रण से पूए बनाने चाहियें तथा फल, वस्त्र, मिष्ठान और दक्षिणा समेत दान करना चाहिए. आप यह दान अपनी सामर्थ्यानुसार ही करें. दान करते समय निम्न मंत्र का जाप करना चाहिए.

“ऊँ विष्णु रूप: सहस्त्रांशु सर्वपाप प्रणाशन:। अपूपान्न प्रदानेन मम पापं व्यपोहतु।।”

इस मंत्र के बाद भगवान विष्णु से प्रार्थना करते हुए निम्न मंत्र बोलें :-

“यस्य हस्ते गदाचक्रे गरुड़ोयस्य वाहनम । शंख करतले यस्य स मे विष्णु: प्रसीदतु ।।”

*$*  भाद्रपद अधिक मास पूर्णिमा पूजा -
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               साधारणतः भाद्रपद पूर्णिमा के दिन चंद्रमा भाद्रपद नक्षत्र में रहता है लेकिन चूँकि इस बार अधिकमास है अत: चन्द्रमा भाद्रपद नक्षत्र में ना होकर शतभिषा में रहेगा. पूर्णिमा को प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व किसी पवित्र नदी, पोखर, कुआं या घर पर ही स्नान करके भगवानविष्णु की पूजा करनी चाहिए. भाद्रपद मास में ब्राह्मण को भोजन कराना, दक्षिणा देना तथा पितरों का तर्पण करना चाहिए. भाद्रपूर्णिमा के दिन गंगास्नान करने वाले पर भगवान विष्णु की असीम कृपा रहती है. इस वर्ष भाद्रपद मास अधिकमास होने के कारण इस पूर्णिमा का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है इस समय व्रत एवं पूजा पाठ द्वारा व्यक्ति को सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है.

               भाद्रपद अधिक मास पूर्णिमा के अवसर पर भगवान सत्यनारायणजी की कथा की जाती है. भगवान विष्णु की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंचामृत, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग किया जाता है. इसके साथ ही साथ गेहूँ के आटे को भून कर उसमें चीनी मिलाकर पंजीरी का प्रसाद बनाया जाता है और इस का भोग लगाया जाता है.

               इसके बाद सुविधानुसार देवीलक्ष्मी, महादेव और ब्रह्माजी का पूजन भी किया जाता है, मतांतर से अन्य देव-देवियों के पूजन की भी परंपरा है. विष्णु पूजन में चरणामृत का विशेष महत्व है अतः चरणामृत प्रसाद सभी को लेना चाहिए.

*$*  अधिक मास पूर्णिमा व्रत का महत्व -
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               जो व्यक्ति अधिकमास में पूर्णिमा के व्रत का पालन करते हैं, उन्हें भूमि पर ही सोना चाहिए. एक समय केवल सादा तथा सात्विक भोजन करना चाहिए. इस दिन व्रत रखते हुए भगवान पुरुषोत्तम अर्थात विष्णुजी का श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहिए तथा मंत्र जाप करना चाहिए. श्रीपुरुषोत्तम माहात्म्य की कथा का पठन अथवा श्रवण भी किया जा सकता है. श्रीमद्रामचरितमानस का पाठ या रुद्राभिषेक का पाठ भी किया या करवाया जा सकता है, साथ ही किसी भी विष्णुस्तोत्र का पाठ करना भी शुभ होता है. अधिकमास पूर्णिमा के दिन श्रद्धा भक्ति से व्रत तथा उपवास रखना चाहिए. इस दिन पूजा-पाठ का अत्यधिक माहात्म्य माना गया है. अधिकमास के पुण्यों को लोकोत्तर गतिके लिए अत्यन्त शुभ बताया गया है.
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ॐ नमो नारायणाय ||
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Sunday 26 August 2012

कमला (पुरुषोत्तमी) एकादशी



              कमला एकादशी (पुरुषोत्तम मास की शुक्लपक्ष एकादशी) व्रत, पुरुषोत्तम मास (अधिक मास) में करने का विधान है।

       ***   कथा इस प्रकार है- एक समय सत्यव्रती पांडुनंदन धर्मराज युधिष्ठिर ने गोपिका बल्लभ, चितचोर, जगत् नियंता भगवान श्रीकृष्ण से सादर पूछा- ‘हे भगवन्। मैं पुरुषोत्तम मास की एकादशी कथा का कर्णेंद्रिय पुटों से पान करना चाहता हूं। उसका क्या फल है? उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है? उसका विधान क्या है? कृपा करके बतलाइए।’

              भगवान श्री कृष्ण बोले- ‘राजेंद्र ! पापों का हरण करने वाली, व्रती मनुष्यों की सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली अधिक मास की शुक्ल पक्ष की कमला एकादशी व्रत में दशमी को व्रती शुद्ध चित्त हो दिन के आठवें भाग में सूर्य का प्रकाश रहने पर भोजन करे। रात्रि में भोजन ग्रहण न करे। बुरे व्यसनों का परित्याग करता हुआ, भगवत् चिंतन में लीन रहकर रात्रि को व्यतीत करे। प्रातःकाल अरुणोदय बेला में शय्या का त्यागकर नित्य नैमित्तिक क्रियाओं से निवृत्त हो एकादशी व्रत का संकल्प ले, कि हे पुरुषोत्तम भगवान। मैं एकादशी को निराहार रहकर द्वितीय दिवस में भोजन करूंगा, मेरे आप ही रक्षक हैं। ऐसी प्रार्थना कर भगवान का षोडशोपचार पूजन करे, मंत्रों का जप करे। घर पर जप करने का एक गुना, नदी के तट पर दोगुना, गौशाला में सहस्र गुना, अग्निहोत्र गृह में एक हजार एक सौ गुना, तीर्थ क्षेत्रों में, देवताओं के निकट तथा तुलसी के समीप लाख गुना और भगवान विष्णु व शिव के निकट अनंत गुना फल मिलता है।’

               भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः कहा-‘राजन्! अवंतिपुरी में शिवशर्मा नामक एक पुण्यात्मा, धर्मात्मा, भगवद्भक्त, ज्ञानी, श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करते थे। उनके पांच पुत्र थे। इनमें जो सबसे छोटा पुत्र था, स्वकीय दोष के कारण पापाचारी हो गया, इसलिए पिता तथा कुटुंबीजनों ने उसे त्याग दिया। अपने असत् कर्मों के कारण निर्वासित होकर वह बहुत दूर घने वन में चला गया। दैवयोग से एक दिन वह तीर्थराज प्रयाग में जा पहुंचा। क्षुधा से पीड़ित दुर्बल शरीर और दीन मुख वाले उस पापी ने त्रिवेणी में स्नान कर भोजन की तलाश में इधर-उधर भ्रमण करते हुए हरिमित्र मुनि का उत्तम आश्रम देखा। वह आश्रम विभिन्न प्रकार के वृक्षों, लताओं, पताकाओं आदि से परिपूर्ण था। बड़े ही सुंदर एवं स्वादिष्ट फल वृक्षों पर लगे हुए थे तथा अनेक प्रकार के एवं विभिन्न रंगों के पक्षी उन पर कलरव कर रहे थे। पुरुषोत्तम मास में वहां बहुत से, संत महात्मा, नर-नारी, बाल-वृद्ध आदि एकत्रित हुए थे। आश्रम पर पापनाशक कथा कहने वाले ब्राह्मणों के मुख से उसने श्रद्धापूर्वक कमला एकादशी कथा की महिमा सुनी, जो परम मंगलमयी, पुण्यमयी तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है। जयशर्मा नामक ब्राह्मण ने विधिपूर्वक कमला एकादशी की कथा सुनकर उन सबके साथ मुनि के आश्रम पर ही व्रत किया। जब आधी रात हुई तो सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली, भगवती लक्ष्मी उसके पास आकर बोलीं- ‘ब्राह्मण ! इस समय कमला एकादशी के व्रत के प्रभाव से मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं और देवाधिदेव श्रीहरि की आज्ञा पाकर वैकुंठ धाम से आई हूँ। मैं तुम्हें वर दूंगी।’ ब्राह्मण बोला - ‘माता लक्ष्मी ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो वह व्रत बताइये, जिसकी कथा-वार्ता में साधु-ब्राह्मण सदा लीन रहते हैं।’ मां लक्ष्मी ने कहा- ‘ब्राह्मण ! एकादशी व्रत का माहात्म्य श्रोताओं के सुनने योग्य सर्वोत्तम विषय है। इससे दुःस्वप्न का नाश तथा पुण्य की प्राप्ति होती है, अतः इसका यत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिए। उत्तम पुरुष श्रद्धा से युक्त हो एकादशी माहात्म्य के एक या आधे श्लोक का पाठ करने से भी करोड़ों महापातकों से तत्काल मुक्त हो जाता है, फिर संपूर्ण एकादशी माहात्म्य श्रवण का तो कहना ही क्या ! जैसे मासों में पुरुषोत्तम मास, पक्षियों में गरुड़ तथा नदियों में गंगा श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार तिथियों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है। एकादशी व्रत के लोभ से ही समस्त देवता आज भी भारतवर्ष में जन्म लेने की इच्छा रखते हैं। देवगण सदा ही रोग शोक से रहित भगवान नारायण का अर्चन पूजन करते हैं। जो लोग मेरे प्रभु भगवान पुरुषोत्तम के नाम का सदा भक्तिपूर्वक जप करते हैं, उनकी ब्रह्मा आदि देवता सर्वदा पूजा करते हैं। जो लोग श्रीनारायण हरि की पूजा में ही प्रवृत्त रहते हैं, वे कलियुग में धन्य हैं। यदि दिन में एकादशी और द्वादशी हो तथा रात्रि बीतते-बीतते सूर्योदय से पूर्व ही त्रयोदशी आ जाए तो उस त्रयोदशी के पारण में सौ यज्ञों का फल प्राप्त होता है। व्रती मनुष्य सुदर्शन चक्र धारी देवाधिदेव श्री विष्णु के समक्ष भक्ति भाव से संतुष्ट चित्त होकर यह संकल्प ले कि ‘हे कमलनयन ! भगवान केशव! मैं एकादशी को निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूंगा। आप मुझे आश्रय प्रदान करें।’ यह प्रार्थना कर मन और इंद्रियों को वश में करके गीत, वाद्य, नृत्य और पुराण-पाठ आदि के द्वारा रात्रि में भगवान के समक्ष जागरण करे। फिर द्वादशी के दिन स्नानोपरांत जितेंद्रियभाव से विधिपूर्वक श्रीविष्णु की पूजा करे। पूजनोपरांत भगवान से प्रार्थना करे- अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव।
प्रसीद सुमुखो भूत्वा ज्ञान दृष्टि प्रदो भव।।
‘केशव ! मैं अज्ञान रूप रतौंधी से अंधा हो गया हूं। आप इस व्रत से प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें।’
इस प्रकार देवताओं के स्वामी जगदाधार भगवान गदाधर से प्रार्थना करके भक्तिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन एवं बलिवैश्वदेव की विधि से पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान करके वस्त्राभूषण द्रव्य दक्षिणादि से ब्राह्मणों का सम्मान कर आदर सहित विदाकर स्वयं भी मौन हो अपने बंधु-बांधवों के साथ प्रसाद ग्रहण करे। इस प्रकार जो शुद्ध भाव से पुण्यमयी एकादशी का व्रत करता है, वह पुनरावृत्ति से रहित श्रीहरि के वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है।’

               भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- -‘राजन् ! ऐसा कहकर लक्ष्मी देवी उस ब्राह्मण को वरदान दे अंतर्धान हो गईं। फिर वह ब्राह्मण भी धनी होकर पिता के घर पर आ गया। पिता के घर पर संपूर्ण भोगों को प्राप्त होता हुआ वह ब्राह्मण भी अंत में भगवान के गोलोक धाम को प्राप्त हो गया। इस प्रकार जो कमला एकादशी का उत्तम व्रत करता है तथा इसका माहात्म्य श्रवण करता है, वह संपूर्ण पापों से मुक्त हो धर्म-अर्थ-काम मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर लेता है।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
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त्वदीय वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ||
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''वशिष्ठ''
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Tuesday 21 August 2012

* क्यों होता है अधिक मास ?


               लगभग समस्त भारतीय पंचांगों के अनुसार जो कि मुख्यतः सूर्य सिद्धांत पर आधारित होते हैं एक सौर वर्ष में 12 चांद्र मास होते हैं। परंतु जिस वर्ष अधिक मास होता है, उस वर्ष 12के स्थान पर 13 चांद्र मास होते हैं। यह लगभग ढाई वर्ष के अंतर में होता है तथा इस अतिरिक्त मास को ही अधिक मास कहा जाता है। अधिक मास क्यों होता है, आईये, इस बारे में विस्तार से चर
्चा करते हैं। भारतीय पंचांग के अनुसार इस वर्ष दो भाद्रपद मास है। इनका आरंभ 3 अगस्त को होगा तथा समाप्ति 30 सितंबर को होगी। अधिक भाद्रपद मास का आरंभ प्रथम भाद्रपद मास के द्वितीय पक्ष से होगा तथा यह द्वितीय भाद्रपद मास के प्रथम पक्ष के अंत तक रहेगा। प्रथम भाद्रपद का प्रथम पक्ष तथा द्वितीय भाद्रपद मास का द्वितीय पक्ष शुद्ध भाद्रपद मास होगा। अतः अधिक भाद्रपद मास का आरंभ 18 अगसत 2012 से होकर 16 सितंबर 2012 को समाप्त होगा। 3 अगस्त से 17 अगस्त तक तथा 17 सितंबर से 30 सितंबर तक शुद्ध भाद्रपद मास होंगे। 


              भारतीय पंचांग के पांच अंगो तिथि, नक्षत्र, योग, करण एवं वार इनकी गणना मुख्यतः नभचक्र में सूर्य एवं चंद्रमा की स्थिति के आधार पर की जाती है। भारतीय पंचांग भू-केंद्रित खगोलिय गणनाओं के आधार पर निर्मित किये जाते हैं। इसमें पृथ्वी को केंद्र मानकर नभचक्र में स्थित अन्य सभी ग्रहों की गति की गणना की जाती है। इस गणना पद्धति में पृथ्वी को स्थिर मानकर सूर्य एवं चंद्रमा सहित अन्य सभी ग्रहों को सापेक्ष गति के आधार पर चलायमान किया जाता है। मेष राशि में सूर्य- मेष सौर मास, और वृष राशि में तो वृष सौर मास आदि। सूर्य जिस दिन एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, उस दिन को ''सूर्य संक्रांति दिवस'' कहा जाता हैं इस प्रकार एक सौर वर्ष में 12 सौर मास एवं 12 सूर्य संक्रांतियां होती है। इन संक्रांतियों का नाम भी सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी के आधार पर रखा जाता है। जैसे मेष संक्रांति, वृष संक्रांति, मिथुन संक्रांति आदि। एक सौर वर्ष में चंद्रमा पृथ्वी की 12 परिक्रमाएं पूरी करता है। पृथ्वी की एक परिक्रमा करते समय चंद्रमा सूर्य के साथ एक बार संयुक्ति करता है तथा एक बार 180 का कोण बनता है। अर्थात एक सौर मास में या एक राशि में सूर्य एवं चंद्रमा वर्ष में केवल एक बार ही संयुक्ति करते हैं तथा एक बार ही 180 का कोण बनाते हैं। सूर्य एवं चंद्रमा के संयुक्ति काल को अमावस्या कहा जाता है। चंद्र मास एक अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक होता है (अमावस्यान्त) अथवा दूसरे सिद्धांत से पू्र्णिमा से पू्र्णिमा तक (पूर्णिमांत)। सूर्य एवं चंद्र एक दूसरे से 180 का कोण बनाते हैं तब पूर्णमासी होती है जो कि अमावस्या के ठीक 15 दिन पश्चात होती है। पूर्णमासी के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में विचरण करता है उसी के आधार पर उस चंद्रमास का नाम रखा गया है। चित्रा नक्षत्र में चंद्रमा होने पर चैत्र मास, विशाखा से वैशाख। ज्येष्ठा से ज्येष्ठ आदि। एक चंद्र मास में सूर्य एक बार राशि परिवर्तन करता है अर्थात एक सौर मास में जिस प्रकार एक अमावस्या एवं एक पूर्णमासी होती है। उसी प्रकार एक चंद्र मास में एक संक्रांति होती है। एक चंद्रमास - 29 दिवस 12 घंटे 44 मिनट एवं 3 सैकेंड का होता है। एक चंद्र वर्ष 354 दिवस 8 घंटे 48 मिनट एवं 36 सेकेंड का होता है। एक सौर वर्ष - 365 दिवस का होता है। इस प्रकार एक सौर वर्ष एवं एक चंद्र वर्ष में लगभग 11 दिवस का अंतर होता है। ढाई से तीन वर्ष में यह अंतर एक चंद्र मास के बराबर हो जाता है इस कारण प्रत्येक ढाई से तीन वर्ष के अंतराल में एक अधिक मास होता है। इसे दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है- 60 सौर माह = 5 वर्ष = 62 चंद्र मास, इसी कारण प्रत्येक ढाई वर्ष के पश्चात एक अतिरिक्त चंद्र मास होता है और यही ''अधिक मास'' कहलाता है। अधिक मास तब होता है जब एक सौर मास में एक की अपेक्षा दो अमावस्याएं हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में पहली अमावस्या से दूसरी अमावस्या तक की अवधि अधिक मास होता है। क्योंकि इस मास में सूर्य संक्रांति नहीं होती है। तथा उस सौर मास में होने वाली दूसरी अमावस्या से इसी चंद्र मास की पुनरावृत्ति होती है और उस वर्ष में 12 के स्थान पर 13 चंद्र मास हो जाते हैं। पहली अमावस्या राशि के आरंभिक एक या दो अंशों पर होती है तथा दूसरी अमावस्या राशि के अंतिम अंशों के आस-पास होती है या सूर्य के राशि परिवर्तन के समय या सूर्य संक्रांति के समय या उसके एक या दो दिन के अंतर मे होती है। इस प्रकार प्रत्येक चंद्र मास में एक संक्रांति अवश्य होती है तथा एक सौर मास में एक पूर्णमासी एवं एक अमावस्या अवश्य होती है। परंतु अधिक मास में सूर्यसंक्रांति नहीं होती है, इसलिए इसे शुद्ध मास नहीं माना जाता है। इस प्रकार सौर वर्ष एवं चंद्र वर्ष की समयावधि अंतर के कारण प्रत्येक ढाई से तीन वर्ष के अंतराल में एक अधिक चंद्र मास होता है। अर्थात प्रत्येक ढाई से तीन वर्ष के अंतराल में एक सौर वर्ष में 12वे स्थान पर 13 चंद्र मास होते हैं। जिस सौर मास में एक के स्थान पर दो अमावस्या होती है उसी सौर मास में अधिक मास आता है तथा अधिक मास का नाम उस सौर मास में पड़ने वाले चंद्र मास के आधार पर ही होता है, जैसे इस बार भाद्रपद नक्षत्र (पूर्वा व उत्तरा) से भाद्रपद मास |
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कुछ और जानकारी अगले लेख में...
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Thursday 16 August 2012

* कुशाग्रहणी अमावस्या - 17.08.12 *



               कुशाग्रहणी अमावस्या भाद्रपद कृष्ण पक्ष अमावस्या के दिन मनाई जाती है. इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा जाता है.

* कुशाग्रहणी अमावस्या विधि-विधान
              कुशाग्रहणी/कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन साल भर के धार्मिक कृत्यों के लिये कुश/कुशा एकत्र कर लेते हैं. प्रत्येक धार्मिक कार्य के लिए कुशा का इस्तेमाल किया जाता है. शास्त्रों में भी दस तरह की कुशा का वर्णन प्राप्त होता है.
यथा- कुशाः काशा यवा दूर्वा उशीराश्च सकुंदकाः |
गोधूमा ब्राह्मयो मौञ्जा दश दर्भाः सबल्वजाः ||

             जिस कुशा का मूल सुतीक्ष्ण हो, इसमें सात पत्ती हो, कोई भाग कटा न हो, पूर्ण हरा हो, तो वह कुशा देवताओं तथा पितृ दोनों कृत्यों के लिए उचित मानी जाती है.
कुशा तोड़ते समय ""विरञ्चिना सहोत्पन्न परमेष्ठिन्निसर्गज | नुद सर्वाणि पापानि दर्भा स्वस्तिकरो भव || हूं फट्"" मंत्र का उच्चारण करना चाहिए.

             इससे पूर्व अघोरा चतुर्दशी के दिन भी तर्पण कार्य भी किए जाते हैं मान्यता है कि इस दिन शिव के गणों भूत-प्रेत आदि सभी को स्वतंत्रता प्राप्त होती है. हिमाचल आदि पहाड़ी प्रदेशों के ग्रामीण क्षेत्रों में परिजनों को बुरी आत्माओं के प्रभाव से बचाने के लिए लोग घरों के दरवाजे व खिड़कियों पर कांटेदार झाडिय़ों को लगाते हैं यह परंपरा सदियों से चली आ रही है।

* कुशाग्रहणी अमावस्या का महत्व
             शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है. इसलिए इस दिन पितरों की तृप्ति के लिए तर्पण, दान-पुण्य का महत्व है. जब अमावस्या के दिन सोम, मंगलवार और गुरुवार के साथ जब अनुराधा, विशाखा और स्वाति नक्षत्र का योग बनता है, तो यह बहुत पवित्र योग माना गया है. इसी तरह शनिवार, और चतुर्दशी का योग भी विशेष फल देने वाला माना जाता है. शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आश्विन कृष्ण पक्ष में चलने वाला पन्द्रह दिनों के पितृ पक्ष का शुभारम्भ भादों मास की अमावस्या से ही हो जाता है.

* कुशाग्रहणी अमावस्या फल
             कुशाग्रहणी अमावस्या के दिन तीर्थ, स्नान, जप, तप और व्रत के पुण्य से ऋण और पापों से छुटकारा मिलता है. इसलिए यह संयम, साधना और तप के लिए श्रेष्ठ दिन माना जाता है. पुराणों में अमावस्या को कुछ विशेष व्रतों के विधान है. भगवान विष्णु की आराधना की जाती है यह व्रत एक वर्ष तक किया जाता है. जिससे तन, मन और धन के कष्टों से मुक्ति मिलती है.


अभिनव शर्मा 'वशिष्ठ'
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Wednesday 15 August 2012

प्रदोष व्रत क्या है ? प्रदोष व्रत विधि क्या है ?


* प्रदोष
                    प्रत्येक चन्द्र मास की त्रयोदशी तिथि के दिन प्रदोष व्रत रखने का विधान है. यह व्रत कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों को किया जाता है. सूर्यास्त के बाद के लगभग 2 घण्टे 30 मिनट का समय प्रदोष काल के नाम से जाना जाता है. प्रदेशों व ऋतुओं के अनुसार यह बदलता रहता है. सामान्यत: सूर्यास्त से लेकर रात्रि आरम्भ तक के मध्य की अवधि को प्रदोष काल में लिया जा सकता है. इस व्रत की पूर्ण अवधि 21 वर्ष की है.

                    ऎसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान भोलेनाथ कैलाश पर्वत पर प्रसन्न मुद्रा में नृ्त्य करते है. जिन जनों को भगवान श्री भोलेनाथ पर अटूट श्रद्धा विश्वास हो, उन जनों को त्रयोदशी तिथि में पडने वाले प्रदोष व्रत का नियम पूर्वक पालन कर उपवास करना चाहिए. यह व्रत उपवासक को धर्म, मोक्ष से जोडने वाला और अर्थ, काम के बंधनों से मुक्त करने वाला होता है. इस व्रत में भगवान शिव का पूजन किया जाता है, जो आराधना करने वाले व्यक्तियों को गरीबी, मृ्त्यु, दु:ख और ऋणों से मुक्ति दिलाता है.

* प्रदोष व्रत की महिमा
                    शास्त्रों के अनुसार प्रदोष व्रत को रखने से दो गायों का दान देने के समान पुण्य फल प्राप्त होता है. प्रदोष व्रत को लेकर एक पौराणिक तथ्य सामने आता है कि "एक दिन जब चारों और अधर्म की स्थिति होगी, अन्याय और अनाचार का एकाधिकार होगा, मनुष्य में स्वार्थ भाव अधिक होगी. तथा व्यक्ति सत्कर्म करने के स्थान पर नीच कार्यो को अधिक करेगा, उस समय में जो व्यक्ति त्रयोदशी का व्रत रख, शिव आराधना करेगा, उस पर शिव कृ्पा होगी. इस व्रत को रखने वाला व्यक्ति जन्म- जन्मान्तर के फेरों से निकल कर मोक्ष मार्ग पर आगे बढता है. उसे उतम लोक की प्राप्ति होती है."

* प्रदोष व्रत से मिलने वाले फल
                     अलग- अलग वारों के अनुसार प्रदोष व्रत के लाभ प्राप्त होते है. जैसे-
सोमवार के दिन त्रयोदशी पडने पर किया जाने वाला वर्त आरोग्य प्रदान करता है. सोमवार के दिन जब त्रयोदशी आने पर जब प्रदोष व्रत किया जाने पर, उपवास से संबन्धित मनोइच्छा की पूर्ति होती है.
जिस मास में मंगलवार के दिन त्रयोदशी का प्रदोष व्रत हो, उस दिन के व्रत को करने से ॠण व रोगों से मुक्ति व स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है.
बुधवार के दिन प्रदोष व्रत हो तो, उपवासक की सभी कामना की पूर्ति होने की संभावना बनती है.
गुरु प्रदोष व्रत शत्रुओं के विनाश के लिये किया जाता है.
शुक्रवार के दिन होने वाल प्रदोष व्रत सौभाग्य और दाम्पत्य जीवन की सुख-शान्ति के लिये किया जाता है.
अंत में जिन जनों को संतान प्राप्ति की कामना हो, उन्हें शनिवार के दिन पडने वाला प्रदोष व्रत करना चाहिए.
अपने उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए जब प्रदोष व्रत किये जाते है, तो व्रत से मिलने वाले फलों में वृ्द्धि होती है.

* प्रदोष व्रत विधि
                      प्रदोष व्रत करने के लिये उपवसक को त्रयोदशी के दिन प्रात: सूर्य उदय से पूर्व उठना चाहिए. नित्यकर्मों से निवृ्त होकर, भगवान श्रीशिव का स्मरण करें व व्रत का सँकल्प करना चाहिये. इस व्रत में दिन में आहार नहीं लिया जाता है. पूरे दिन उपावस रखने के बाद सूर्यास्त से एक घंटा पहले, स्नान आदि कर श्वेत वस्त्र धारण किये जाते है. ईशान कोण की दिशा में किसी एकान्त स्थल को पूजा करने के लिये प्रयोग करना विशेष शुभ रहता है. पूजन स्थल को गंगाजल/गौमूत्र या स्वच्छ जल से शुद्ध करने के बाद, गाय के गोबर से लीपकर, मंडप तैयार किया जाता है. अब इस मंडप में पद्म पुष्प की आकृ्ति पांच रंगों का उपयोग करते हुए बनाई जाती है. प्रदोष व्रत कि आराधना करने के लिये कुशा(कुश) के आसन का प्रयोग किया जाता है. इस प्रकार पूजन क्रिया की तैयारियां कर उतर-पूर्व (ईशान) दिशा की ओर मुख करके बैठे और भगवान शंकर का पूजन करना चाहिए. पूजन में भगवान शिव के मंत्र  "ऊँ नम: शिवाय" जाप करते हुए षोडशोपचार या पंचोपचार अथवा कम से कम जल का अर्ध्य देना चाहिए.

* प्रदोष व्रत समापन / उद्यापन करना
                      इस व्रत की पूर्ण अवधि 21 वर्ष है, अल्प करें तो 11 वर्ष या 5 वर्ष, जो ये भी ना कर सकें, वे कम से कम 26 त्रयोदशियों तक उपवास रखें, रखने के बाद व्रत का समापन करना चाहिए. इसे "उद्यापन" के नाम से भी जाना जाता है. इस व्रत का उद्यापन करने के लिये त्रयोदशी तिथि का चयन किया जाता है. उद्यापन से एक दिन पूर्व श्री गणेश का पूजन किया जाता है. पूर्व रात्रि में कीर्तन करते हुए जागरण किया जाता है. प्रात: जल्द उठकर मंडप बनाकर, मंडप को वस्त्रों या पद्म पुष्पों से सजाकर तैयार किया जाता है. भगवान शिव का सपरिवार विधिवत पूजन किया जाता है, इसके बाद हवन किया जाता है. हवन में आहूति के लिये खीर का प्रयोग किया जाता है. हवन समाप्त होने के बाद भगवान शिव की महाआरती की जाती है और शान्ति पाठ किया जाता है. अंत में 23 ब्राह्मण जोडों को भोजन कराया जाता है तथा अपने सामर्थ्य अनुसार दान-दक्षिणा देकर आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है.


अभिनव शर्मा 'वशिष्ठ'
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Thursday 9 August 2012

*%* श्रीकृष्ण जन्माष्टमी *%*


               भगवान विष्णु के अवतार रूप में श्रीकृष्ण जी का अवतरण भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्ररूप में हुआ था. स्मार्त और वैष्णव संप्रदाय के लोग भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव अलग-अलग ढंग से मनाते हैं. श्रीमद्भागवत को प्रमाण मानकर स्मार्त संप्रदाय के मानने वाले चंद्रोदय व्यापनी अष्टमी अर्थात रोहिणी नक्षत्र में जन्माष्टमी मनाते हैं व इसी प्रकार वैष्णव मानने वाले उदयकाल व्यापनी अष्टमी एवं उदयकाल रोहिणी नक्षत्र को जन्माष्टमी का पर्व मनाते हैं. इस वर्ष जन्माष्टमी का त्यौहार 9 अगस्त 2012 को स्मार्तों का व्रत है और 10 अगस्त 2012 को वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा मनाया जाएगा.

* जन्माष्टमी पूजा विधि :-
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              श्री कृष्ण जी की पूजा आराधना का यह पावन पर्व सभी को कृष्ण भक्ति से परिपूर्ण कर देता है. इस दिन व्रत-उपवास करने का अपना विधान है. यह व्रत सनातन-धर्मावलंबियों के लिए अनिवार्य माना जाता है. इस दिन उपवास रखें जाते हैं तथा कृष्ण भक्ति के गीतों का श्रवण किया जाता है. घर के पूजागृह तथा मंदिरों में श्रीकृष्ण-लीला की झांकियां सजाई जाती हैं. भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति अथवा श्रीशालिग्राम का पंचामृत, गंगा जाल, यमुना जल आदि से अभिषेक किया जाता है तथा भगवान श्री कृष्ण जी का षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है. भगवान का श्रृंगार करके उन्हें झूला झुलाया जाता है. मध्यरात्रि तक पूर्ण उपवास रखा जाता है. जन्माष्टमी की रात्रि में जागरण, कीर्तन किए जाते हैं व अर्धरात्रि के समय शंख तथा घंटों के नाद से श्रीकृष्ण-जन्मोत्सव को संपन्न किया जाता है.

* छप्पन भोग :-
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              जन्माष्टमी के दिन दूध और दूध से बने व्यंजनों का सेवन किया जाता है. भगवान कृष्ण को दूध और मक्खन अति प्रिय था. अत: जन्माष्टमी के दिन खीर और पेडे़, माखन-मिस्री जैसे मीठे व्यंजन बनाए और खाए जाते हैं. जन्माष्टमी का व्रत, मध्य रात्रि को श्रीकृष्ण भगवान के जन्म के पश्चात भगवान के प्रसाद को ग्रहण करने के साथ ही पूर्ण होता है.

* मोहरात्रि :-
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              श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि भी कहा गया है. इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से मुक्ति प्राप्त होती है. जन्माष्टमी का व्रत करने से महान्‌ पुण्य की प्राप्ति होती है.

सार रुप से श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव सम्पूर्ण विश्व को आनंद-मंगल का संदेश देता है.

* जन्माष्टमी महत्व :-
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यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥७॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥८॥

             गीता की इस अवधारणा द्वारा भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जब जब धर्म का नाश होता है तब तब मैं स्वयं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ और अधर्म का नाश करके धर्म की स्थापना करता हूँ. अत: जब असुर एवं राक्षसी प्रवृतियों द्वारा पाप का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर इन पापों का शमन करते हैं. भगवान विष्णु इन समस्त अवतारों में से एक महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का रहा. भगवान स्वयं जिस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे, उस पवित्र तिथि को ही हम कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं. अतः हमें भी धर्म मार्ग का ही आश्रय लेना चाहिये |

आप सभी को शुभकामनाएँ...

अभिनव शर्मा "वशिष्ठ"

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Wednesday 1 August 2012

*** रक्षाबंधन के पवित्र शुभ मुहूर्त और मंत्र ***



## रक्षाबंधन के वचन का इतिहास ## [ इतिहास के पन्नों से ]

## रक्षाबंधन के वचन का इतिहास ##
[ इतिहास के पन्नों से ]
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रक्षाबंधन का पर्व श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस पर्व की शुरुआत बहुत पहले हुई थी। 

भारतीय संस्कृति में पौराणिक शास्त्रों, धर्मग्रंथों और अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों ने रक्षाबंधन के कई उदाहरण हमारे सामने पेश किए हैं। जानिए रक्षा के वचन निभाने से संबंधित कुछ खास और महत्वपूर्ण जानकारी। 

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 भगवान इंद्र अपना राज्य वृत्रासुर के हाथों गंवाने के बाद उसके खिलाफ युद्ध पर जाने वाले थे। भगवान बृहस्पति के कहने पर इंद्र की पत्नी शचि ने उन्हें राखी बांध कर संग्राम में विजय होने के साथ-साथ उनकी रक्षा की प्रार्थना की।

* शास्त्रों के मुताबिक शिशुपाल की मृत्यु के पश्चात्‌ जब भगवान श्रीकृष्ण की उंगली से रक्त बह रहा था, उस समय पांडवों की पत्नी द्रौपदी ने रक्तस्राव रोकने के लिए उनकी कलाई पर अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर बांध दिया।

द्रौपदी के इस स्नेह को देख भगवान कृष्ण ने हर पल उनकी रक्षा करने का वचन दिया। तब से लेकर जीवन पर्यंत उन्होंने उनकी रक्षा की।

* एक और वृत्तांत के अनुसार यमराज की बहन यमुना ने राखी बांध कर उन्हें अजरता और अमरता के वरदान से संपूर्ण किया था।

* इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि जब राजा सिकंदर और राजा पुरू के बीच घमासान जंग हुई तब सिकंदर की पत्नी द्वारा पुरू को बांधी गई राखी के वचन स्मरण हुए और उसने सिकंदर की जान बक्श दी।

* चित्तौड़ की रानी कर्णावती ने राजा हुमायूं को अपनी सुरक्षा के लिए राखी भेजी थी किंतु बंगाल के खिलाफ संग्राम के चलते हुमायूं चित्तौड़ और कर्णावती को राजपूत रीति-रिवाज वाले जौहर में कुर्बान होने से नहीं बचा सके।

* 1905 में बंग भंग (बंगाल विभाजन) के समय रवींद्रनाथ टैगोर ने हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में राखी बांधकर शांति और अमल कायम करने की अपील की थी।

इस पर्व को सामुदायिक त्योहार बनाकर राष्ट्रवादी भावना को विभिन्न जाति और संप्रदाय के लोगों में बहाल करने का अनुरोध किया था, जिसका फल कुछ हद तक बंगाल में नजर आया था।

अभिनव वशिष्ठ.





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$$$ श्रावणी पर्व का महत्व $$$ [ क्या है श्रावणी पर्व का मूल स्वरूप ]

$$$ श्रावणी पर्व का महत्व $$$
[ क्या है श्रावणी पर्व का मूल स्वरूप ]
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               भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही तिथि, पर्व और उपासना का विशेष महत्व रहा है। आधुनिक वैश्विक प्रगति में जहां हमारा देश नई-नई बुलंदियों को छू रहा है, वहीं अपनी प्राचीन मान्यताओं को भी बड़ी सहजता से संजोए हुए है। यद्यपि कुछ पर्वों के मनाने में कुछ आधुनिकता भी आ गई है लेकिन मूल तत्व से जुड़ाव नही टूटा है।

               हमारी सनातन वैदिक सामाजिक व्यवस्था में वर्णाश्रम धर्म का विशेष महत्व रहा है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्ण व्यवस्थाओं में भारत का प्राचीन समाज आज की अपेक्षाकृत कहीं अधिक व्यवस्थित एवं अनुशासित था। वर्णव्यवस्था में विकारयुक्त भेद कुछ सदियों के बाद शुरू हुआ लेकिन अब वह प्रायः समाप्त मात्र है।

               चार वर्णों, चार पुरुषार्थों में विभक्त प्राचीन वैदिक व्यवस्था में भारतवर्ष में चार ही प्रमुख राष्ट्रीय पर्व हुआ करते थे, जिनमें प्रथम वर्ण ब्राह्मण द्वारा संयोजित श्रावणी रक्षाबंधन पर्व; जो राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्ति को पूंजीभूत करने का पर्व था। दूसरा विजया दशमी जो क्षत्रिय वर्ण द्वारा संयोजित राष्ट्र की सैन्य शक्ति को सुसज्जित करने का पर्व। तीसरा महालक्ष्मी पूजा दीपावली पर्व वैश्य वर्ण द्वारा राष्ट्र की अर्थशक्ति को व्यवस्थित करने का पर्व और चौथा होली शूद्रवर्ण के संयोजन में समग्र राष्ट्र की शक्ति को पूंजीभूत करने का समन्वयात्मक पर्व के रूप में प्रचलित था।

               चारों पर्व, चारों वर्णों की आध्यात्मिक शक्ति, सैन्य शक्ति, अर्थशक्ति एवं पुरुषार्थ प्रधान शक्तियों को राष्ट्र को सुदृढ़ करने के लिए समन्वयात्मक प्रयास ही इन पर्वों के प्रमुख उद्देश्य थे। इसी कारण अनेक बार विदेशी आक्रांताओं द्वारा देश को छिन्न-भिन्न करने के क्रूर प्रयासों के बाद भी हम आज विश्व के समक्ष अपनी अस्मिता को सुरक्षित रख सके हैं और भारतवर्ष के नवसृजन में सतत अग्रसर हैं।

               श्रावणी पर्व पर किए जाने वाले रक्षा विधान में वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाने वाला कलावा केवल तीन धागों का समूह ही नहीं है अपितु इसमें आत्मरक्षा, धर्मरक्षा और राष्ट्ररक्षा के तीनों सूत्र संकल्प बद्ध होते हैं। प्राचीन मान्यताओं से इस पर्व को मानने वाले श्रद्धालु इस दिन नदियों के जल में खड़े होकर विराट भारत की महान परंपराओं का स्मरण करते हुए संकल्प करते हैं जिसे "हेमाद्रि संकल्प" अर्थात्‌ हिमालय जैसा महान संकल्प का नाम दिया हुआ है।

               इसमें सर्वप्रथम मनुष्य को नाना प्रकार के पाप, दुराचरण और समाज विरुद्ध कर्मों से दूर रहने तथा उनके प्रायश्चित्‌ की बात कही है। इस संकल्प में प्राचीन भारत के वन प्रदेशों जैसे बद्रिकारण्य, दंडकारण्य, अरावलीवन, गुह्यरण्य, जंबुकारण्य, विंध्याचलवन, द्राक्षारण्य (अंगूर के वन), नहुषारण्य, काम्यकारण्य, द्वैतारण्य, नैमिषारण्य, अवन्तिवन आदि प्राचीन भारत के विराट एवं समृद्धशाली वन प्रदेशों का स्मरण किया जाता है।

               इसके बाद पर्वत मालाओं का जिसमें सुमेरूकूट (पर्वत), निषिधकूट, शुभ्रकूट, श्रीकूट, हेमकूट (हिमालय) रजकूट, चित्रकूट, किष्किन्धा, श्वेताद्रि, विंध्याचल, नीलगिरि, सह्याद्रि कश्मेरू आदि उन समस्त पर्वत श्रृंखलाओं को याद किया जाता है जिनमें से कुछ अब वर्तमान भारतवर्ष की सीमा से बाहर हैं।

               इसके बाद तीर्थ क्षेत्रों शिव-शक्ति उपासना स्थलों के साथ सिंधु और ब्रह्मपुत्र नदी एवं गंगा, गोदावरी, सतलुज, गंडकी, तुंगभद्रा, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी आदि प्राचीन विराट भारत में प्रवाहित होने वाली पवित्र नदियों को संकल्प में पिरोया गया है।

ताकि हम अपनी प्राचीन अखंड विरासत का स्मरण कर वर्तमान में श्रावणी पर्व पर यह संकल्प लें कि भारत की सार्वभौमिक एकनिष्ठ, विश्वबंधुत्व की भावना हमें एकसूत्र में बंधने की प्रेरणा प्रदान करें तथा राष्ट्र में कोई भी विघटनकारी ताकत अपना सिर न उठा सकें। इस संकल्प के बाद वेद मंत्रों से अभिमंत्रित यज्ञोपवीत धारण कर हाथ की कलाई में रक्षासूत्र बांधा जाता है।

              कुछ सदियों से रक्षा बंधन का पर्व भाई-बहन के स्नेह के पर्व के रूप में प्रसिद्ध हो गया है। इसे एक और नई उपलब्धि कहा जा सकता है क्योंकि भाई अपनी बहनों से राखी बंधवा कर उसे यह विश्वास दिलाते हैं कि इस पवित्र बंधन के माध्यम से वह तुम्हारी सदैव देखभाल करता रहेगा। चाहे कोई भी परिस्थिति, कैसी भी समस्या आ जाए, उसका भाई हमेशा उसकी रक्षा करेगा।

इस प्रकार यह पर्व भारत की विराट आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक परंपरा का संकल्प दिवस बन गया है।

अभिनव वशिष्ठ.