Monday 15 October 2012

नवरात्र पूजन विधि


शारदीय नवरात्र शक्ति की उपासना का महापर्व है.


मार्कण्डेयपुराणके अंतर्गत देवी-माहात्म्य में स्वयं जगदम्बा का आदेश है-

शरत्काले महापूजा क्रियतेया चवार्षिकी।
तस्यांममैतन्माहात्म्यंश्रुत्वाभक्तिसमन्वित:॥

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तोधनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्योमत्प्रसादेनभविष्यतिन संशय:॥

अर्थ- शरद् ऋतु के नवरात्र में जो मेरी वार्षिक महापूजा की जाती है, उस अवसर पर जो मेरे माहात्म्य (दुर्गासप्तशती) को भक्तिपूर्वक सुनेगा, वह मनुष्य मेरी कृपा से सब बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा.

नवरात्रमें दुर्गासप्तशती को पढने अथवा सुनने से देवी अत्यन्त प्रसन्न होती हैं. सप्तशती का पाठ उसकी मूल भाषा संस्कृत में करने पर ही उसका सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है. श्रीदुर्गासप्तशतीको भगवती दुर्गा का ही स्वरूप समझना चाहिए.

* पाठ करने से पूर्व पुस्तक का इस मंत्र से पंचोपचारपूजन करें-

नमोदेव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यैभद्रायैनियता:प्रणता:स्मताम्॥ 

यदि आप दुर्गासप्तशती का संस्कृत में पाठ करने में असमर्थ हों तो सप्तश्लोकी दुर्गा को पढें. सात श्लोकों वाले इस स्तोत्र में सप्तशती का सार समाहित है. जो इतना भी न कर सके वह केवल दुर्गा नाम को मंत्र मानकर उसका अधिकाधिक जप करे.


* नवरात्रके प्रथम दिन कलश (घट) की स्थापना के समय देवी का आवाहन इस प्रकार करें-

आगच्छ वरदेदेवि दैत्यदर्प-निषूदिनी।
पूजांगृहाणसुमुखि नमस्तेशंकरप्रिये।।


* देवी के पूजन के समय यह मंत्र पढें-

जयन्ती मङ्गलाकाली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधानमोऽस्तुते॥


* षोडशोपचारविधि से देवी की पूजा करने के उपरान्त यह प्रार्थना करें-

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषोजहि॥

देवि! मेरा कल्याण करो. मुझे श्रेष्ठ सम्पत्ति प्रदान करो. मुझे रूप दो, जय दो, यश दो और मेरे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो.

प्राय: पूरे नवरात्र उपवास रखे जाते हैं. व्रत का विधान गुरु - कुल की परम्परा के अनुसार बन जाता है.


** ऋषियों ने सम्पूर्ण नवरात्रव्रत के पालन में असमर्थ लोगों के लिए सप्तरात्र, पंचरात्र, त्रिरात्र, युग्मरात्र और एकरात्र व्रत का विधान भी बनाया है.
प्रतिपदा से सप्तमीपर्यन्त उपवास रखने से सप्तरात्र-व्रत का अनुष्ठान होता है. इस व्रत को करने वाले अष्टमी के दिन माता को हलवा और चने का भोग लगाकर कुंवारी कन्याओं को खिलाते हैं तथा अन्त में प्रसाद को ग्रहण करके व्रत का पारण करते हैं.
पंचरात्र-व्रत पंचमी को दिन में केवल एक बार, षष्ठी को केवल रात्रि में एक बार, सप्तमी को बिना मांगे जो कुछ मिल जाय अर्थात अयाचित भोजन करके, अष्टमी को पूरी तरह उपवास रखकर, नवमी में केवल एक बार भोजन करने से पूर्ण होता है.
सप्तमी, अष्टमी और नवमी को केवल एक बार फलाहार करने से त्रिरात्र व्रत होता है.
आरंभ और अंत के दिनों में मात्र एक बार आहार लेने से युग्मरात्र व्रत तथा नवरात्र के प्रारंभिक अथवा अंतिम दिन उपवास रखने से एकरात्र-व्रत सम्पन्न होता है.


नवरात्रके नौ दिन साधना करने वाले साधक प्रतिपदा तिथि के दिन शैलपुत्री की, द्वितीया में ब्रह्मचारिणी, तृतीया में चंद्रघण्टा, चतुर्थी में कूष्माण्डा, पंचमी में स्कन्दमाता, षष्ठी में कात्यायनी, सप्तमी में कालरात्रि, अष्टमी में महागौरी तथा नवमी में सिद्धिदात्री की पूजा करें. 


नवरात्रमें नवदुर्गा की उपासना करने से नवग्रहों का प्रकोप भी शांत हो जाता है. रावण का वध करने के लिए शारदीय नवरात्र का व्रत स्वयं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्रजी ने किया था.



                                                                     !! हरिॐ तत्सत्‌ !!

                                                                                                               ''वशिष्ठ''

शारदीय नवरात्रा - घटस्थापना का श्रेष्ठ मुहू‌र्त्त



               अश्विन शुक्ल प्रतिपदा मंगलवार दिनांक 16 अक्टूबर, 2012 ई. को शारदीय नवरात्रा आरंभ हो रहे हैं. देवी पुराण में नवरात्रा के दिन देवी का आह्वान, स्थापना व पूजन का समय प्रातःकाल लिखा है किन्तु इस दिन चित्रा नक्षत्र व वैधृति योग को वर्जित बताया गया है. इस वर्ष आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को वैधृति योग का संयोग तो नहीं हो रहा है, किन्तु चित्रा नक्षत्र का संयोग प्रातः 06:45 बजे तक होने से घटस्थापना का श्रेष्ठ समय अभिजित काल ही रहेगा. अत: इस वर्ष शारदीय नवरात्रा में घटस्थापना दोपहर अभिजित मुहू‌र्त्त में 11:50 से 12:35 बजे तक करना श्रेष्ठ रहेगा. चौघडिये के हिसाब से घटस्थापना करने वाले दिन के 09:22 से दोपहर बाद 01:38 बजे तक क्रमश: चर, लाभ व अमृत के चौघडियों में भी घटस्थापना कर सकते हैं.

(विशेष- समय गणना जयपुर के अक्षांश-रेखांश आधारित है, अतः अपने नगर के अनुसार अवश्य देखें)


                                                                !! हरिॐ तत्सत्‌ !!

                                                                                                      ''वशिष्ठ''

आदिशक्ति की आराधना का पर्व: शारदीय नवरात्र



मंगलवार से शारदीय नवरात्र पर्व शुरू होगा. नवरात्र के पहले दिन घट स्थापन कर दुर्गा की प्रतिमा की स्थापना की जाती है और पूरे नौ दिन व्रत और दुर्गा सप्तशती का पाठ का विधान है. पूरे नवरात्र अखंड दीप जलाकर माँ की स्तुति की जाती है और उपवास रखा जाता है. नवरात्र के अंतिम दिन कन्याओं को भोजन कराकर यथाशक्ति दक्षिणा देकर व्रत का समापन किया जाता है. वर्ष में नवरात्र दो बार आते हैं. चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से शुरू होने वाले नौ दिवसीय पर्व को वासंतिक नवरात्र कहा जाता है और अश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शुरू होने वाले नवरात्र को शारदीय नवरात्र कहते हैं.

नवरात्र में भगवती के नौ रूपों - शैलपुत्री, ब्रह्माचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री की पूजा-आराधना का विधान है. माँ जगदंबा शक्ति की अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं और उनकी उपासना का पर्व है नवरात्र. नवरात्र के दिनों को तीन भागों में बांटा गया है. पहले तीन दिनों में तमस को जीतने की आराधना, अगले तीन दिन रजस और आखिरी तीन दिन सत्व को जीतने की अर्चना के माने गए हैं. नवरात्र पर्व का आध्यात्मिक, धार्मिक और सामाजिक महत्व है. यह पर्व नवरात्र के अलावा दुर्गा पूजा, कुल्लू दशहरा, मैसूर दशहरा, बोम्मई कोलू, आयुध पूजा, विद्यारंभ, सरस्वती पूजा और सिमोल्लंघन आदि नामों से देश के विभिन्न भागों में मनाया जाता है. यह पर्व ऋतु परिवर्तन को भी दर्शाता है.

नवरात्र के पहले दिन ही अपनी सामर्थ्य के अनुसार पूजा करने व व्रत रखने का संकल्प लिया जाता है. यह व्रत नौ, सात, पांच या तीन दिन का किया जा सकता है. इस दौरान व्रती को एक समय भोजन व नियम-संयम युक्त दिनचर्या का पालन करना जरूरी माना गया है. यह व्रत आबाल-वृद्ध कोई भी कर सकता है. माँ दुर्गा के 51 शक्तिपीठ माने गए हैं (मतांतर से 52), जहाँ विशेष अर्चना की जाती है.

मार्कंडेय पुराण के अंतर्गत देवी महात्म्य में दुर्गा ने स्वयं को शाकंभरी अर्थात साग-सब्जियों से विश्व का पालन करने वाली बताया है. देवी का एक और नाम कूष्मांडा भी है. इससे स्पष्ट है कि माँ दुर्गा का संबंध वनस्पतियों से भी प्रतीकात्मक रूप से जुड़ा है. दुर्गा पूजा का मूल महत्व मातृशक्ति की पूजा है. शक्ति में सृजन की जो क्षमता होती है, उसी की हम पूजा करते हैं. शक्ति का सही रूप सृजन धर्मा है. प्रकृति अपने नारी रूप में जगत को धारण करती है, उसका पालन करती है और शक्ति रूप में संतुलन बिगड़ने पर विध्वंसकारी शक्तियों का विनाश कर सार्थक शक्ति का संचार करती है.

अध्यात्म में नवरात्र पर्व की विशेष मान्यता है. कारण कि नवरात्र में किए गए प्रयास, शुभ संकल्प पराम्बा की कृपा से सफल होते हैं.


आगे नवरात्र के विशेष लेखों का क्रम चलेगा.


अगला लेख घटस्थापना के श्रेष्ठ मुहू‌र्त्त पर...


                                                       !! हरिॐ तत्सत्‌ !!


                                                                                                         ''वशिष्ठ''

* व्रत-पर्व * -(16 से 29 अक्टूबर सन् 2012)


* व्रत-पर्व *

विक्रम संवत् 2069
आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आश्विन पूर्णिमा तक
(अक्टूबर सन् 2012- 16 से 29)

16 अक्टूबर- शारदीय नवरात्र प्रारंभ, कलश (घट) स्थापना, नाती द्वारा नाना-नानी का श्राद्ध अपराह्न काल, महाराज अग्रसेन जयंती, सूर्य तुला संक्रान्ति.

17 अक्टूबर- नवीन चंद्र-दर्शन, रेमन्त-पूजन (मिथिलांचल), तुला संक्रान्ति के स्नान-दान का पुण्यकाल पूर्वान्ह तक.

18 अक्टूबर- सिंदूर तृतीया, चतुर्थी तिथि क्षय, वरदविनायक चतुर्थी व्रत, माना चतुर्थी (बंगाल, उड़ीसा), रथोत्सव चतुर्थी,

19 अक्टूबर- उपांग ललिता पंचमी व्रत, नत पंचमी (उडीसा)

20 अक्टूबर- शारदीय दुर्गा पूजा प्रारम्भ, बिल्वाभिमंत्रण षष्ठी, गजगौरी व्रत, स्कन्दषष्ठी व्रत, तपषष्ठी (उड़ीसा), मूल नक्षत्र में सरस्वती (देवी) का आवाहन, छठ पूजा-मेला आमेर (जयपुर)

21 अक्टूबर- महासप्तमी व्रत-पूजा, शारदीय त्रिदिनात्मक दुर्गा पूजा-पत्रिका प्रवेश (बंगाल), पूर्वाषाढा नक्षत्र में सरस्वती (देवी) की पूजा, भानुसप्तमी पर्व, नवपद ओली प्रारंभ (श्वेत.जैन), नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज का स्थापना दिवस.

22 अक्टूबर- श्रीदुर्गा-महाअष्टमी व्रत-पूजा, श्रीअन्नपूर्णाष्टमी व्रत, अन्नपूर्णा माता दर्शन-पूजन एवं परिक्रमा (काशी), उत्तराषाढा नक्षत्र में सरस्वती देवी के लिये बलिदान, कुमारिका पूजन, सूर्य सायन वृश्चिक राशि में शेषरात्रि 5.44 बजे, सौर हेमंत ऋतु प्रारंभ.

23 अक्टूबर- श्रीदुर्गा-महानवमी व्रत-पूजा, श्रवण नक्षत्र में सरस्वती (देवी) का विसर्जन, शारदीय नवरात्र पूर्ण.

24 अक्टूबर- नवरात्रौत्थापन, विजयादशमी (दशहरा), स्वयंसिद्ध अबूझ मुहू‌र्त्त, आयुध व अपराजिता पूजा, श्री माधवाचार्य जयंती, संयुक्त राष्ट्र दिवस.

25 अक्टूबर- पापांकुशा एकादशी व्रत (सबका).

26 अक्टूबर- पद्मनाभ द्वादशी, श्यामबाबा द्वादशी, गणेशशंकर विद्यार्थी जयंती.

27 अक्टूबर- शनि-प्रदोष व्रत.

28 अक्टूबर- मारवाड़ उत्सव प्राम्भ- 2 दिन का जोधपुर.

29 अक्टूबर- शरद्पूर्णिमा व्रतोत्सव, कोजागरी पर्व, लक्ष्मी-पूजा (बंगाल), महारास पूर्णिमा (ब्रज), श्रीबांकेबिहारी द्वारा मोर-मुकुट व कटि-काछनी तथा वंशी धारण करना, लक्ष्मी एवं इंद्र पूजा, रात्रि-जागरण, आदिकवि मुनि वाल्मीकि जयंती, श्री मत्स्येन्द्रनाथ उत्सव (उज्जयिनी), अग्र महाकुंभ (अग्रोहा), स्नान-दान-व्रत की आश्विनी पूर्णिमा, श्रीसत्यनारायण पूजा-कथा, कुमार पूर्णिमा (उड़ीसा), नवान्न पूर्णिमा, डाकोर जी का मेला (गुजरात), कार्तिक स्नान प्रारंभ, कार्तिक मास के लिए आकाशदीप-दान प्रारंभ, ब्रज-परिक्रमा प्रारंभ.
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Sunday 14 October 2012

इस बार सर्वपितृ अमावस्या विशेष क्यों है ?


               इस बार 15 अक्टूबर को पडने वाली सर्वपितृ अमावस्या पर 7 साल बाद एक विशेष त्रियोग बना है. सोमवार का दिन तथा हस्त नक्षत्र की साक्षी में 15 अक्टूबर को आने वाली अमावस्या तिथि ''सोमवती सर्वपितृ अमावस्या'' कहलाएगी. इस विशेष पर्वकाल में पितरों की तृप्ति तथा पदवृद्घि के लिए किया गया पूजन विशेष फलदायी रहेगा. शास्त्रों के अनुसार श्राद्घकर्म में भरणी, मघा तथा हस्त नक्षत्र विशेष महत्व रखते हैं. 

'गर्गसंहिता' के अनुसार तिथियों के अलावा इन नक्षत्रों में पितरों का पूजन करने से पितृ तृप्त तो होते ही हैं तथा पितृलोक में उनके पद में विशिष्ट वृद्घि भी होती हैं.

हस्त नक्षत्र की उपस्थिति में सर्वपितृ सोमवती अमावस्या पर तुलसी पत्र से पिंडार्चन करना विशेष फलदायी होता है. तुलसी की गंध से पितृगण प्रसन्न होते हैं, 'श्राद्घ कल्प' में इसका उल्लेख मिलता है.


आशा है आप सभी इस दुर्लभ योग से अवश्य ही लाभ उठायेंगे.


                                                             !! हरिॐ तत्सत्‌ !!

                                                                                                      ''वशिष्ठ''

क्या है सर्वपितृ अमावस्या का महत्व ?


               आश्विन कृष्णपक्ष, वह विशिष्ट काल है जिसमें पितरों के लिये तर्पण और श्राद्ध आदि किये जाते है. यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की तिथि होती है किंतु आश्विन मास की अमावस्या पितृपक्ष के लिए उत्तम मानी गई है. इस अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या या पितृविसर्जनी अमावस्या या महालय समापन या महालय विसर्जन आदि नामों से जाना जाता है. यूं तो शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ श्राद्ध सदैव कल्याणकारी होता है परन्तु जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सकें, उन्हें कम से कम आश्विन मास में पितृगण की मरण तिथि के दिन श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए.

               भाद्र शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा से पितरों का काल आरम्भ हो जाता है. यह सर्वपितृ अमावस्या तक रहता है. जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध तर्पण आदि नहीं कर पाते हैं और जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके श्राद्ध, तर्पण इत्यादि इसी अमावस्या को किये जाते है. इसलिए सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितर अपने पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से विशेष रुप से आते हैं. यदि उन्हें वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती, तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते हैं जिससे आगे चलकर पितृदोष लगता है और इस कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. (पितृदोष पर विशेष लेख लिखे जा चुके हैं)

               इसे महालय श्राद्ध भी कहते हैं. महा से अर्थ होता है 'उत्सव दिन' और आलय से अर्थ है 'घर' अर्थात कृष्ण पक्ष में पितरों का निवास माना गया है. इसलिए इस काल में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किए जाते हैं जो महालय भी कहलाता है. यदि कोई परिवार पितृदोष से कलह तथा दरिद्रता से गुजर रहा हो और पितृदोष शांति के लिए अपने पितरों की मृत्यु तिथि मालूम न हो तो उसे सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध-तर्पणादि करना चाहिए. जिससे पितृगण विशेष प्रसन्न होते हैं और यदि पितृदोष हो तो उसके प्रभाव में भी कमी आती है.


अगले लेख में पढें,  इस बार सर्वपितृ अमावस्या विशेष क्यों है ?


                                                          !! हरिॐ तत्सत्‌ !!
         
                                                                                                 ''वशिष्ठ''

पितृदोष निवारण के कुछ सरल उपाय


               पितरों को तृप्त करने के लिए आश्विन मास के कृष्णपक्ष मे जिस तिथि को पूर्वजों का निर्वाण हुआ हो उस तिथि को तिल, जौ, पुष्प, कुश, गंगाजल या शुद्ध जल से तर्पण, पिंडदान और पूजन करना चाहिए. उसके बाद योग्य ब्राह्मण को भोजन, वस्त्र, फल एवं दान करना चाहिए. गाय, कौआ, पिपीलिका, श्वान को भी देना चाहिए. यह क्रम पंचबलि कहलाता है.

कुछ नियमित दिनचर्या में किए जाने वाले उपाय निम्न हैं :-

पिता का अपमान न करें और उनकी खुशी के लिए हरसंभव कोशिश करें. हर रोज माता-पिता और गुरु के चरण छूकर आशीर्वाद लेने से पितरों की प्रसन्नता मिलती है. अपने बड़े-बुज़ुर्गों का सदैव आदर करें.

प्रत्येक अमावस्या को गाय के जलते हुए उपले (कंडे, गोबर) पर तैयार शुद्ध भोज्य पदार्थ या खीर रखकर दक्षिण दिशा की ओर मुखकर पितरों से प्रार्थना करें.

हर रोज संभव हो तो चिडिय़ा या दूसरे पक्षियों के खाने-पीने के लिए अन्न के दानें और पानी रखें.

प्रत्येक अमावस्या, विशेषकर सोमवती अमावस्या को योग्य ब्राह्मण को भोजन, वस्त्र आदि दान करने से पितृदोष के विपरीत प्रभाव में कमी आती है. श्राद्धपक्ष या वार्षिक श्राद्ध में ब्राह्मणों के लिए तैयार भोजन में पितरों की पसंद का पकवान जरुर बनाएं.

हर रोज तैयार भोजन में से तीन भाग गाय, कुत्ते और कौए के लिए निकालें और उन्हें खिलाएं.

किसी तीर्थ पर जाएं तो पितरों के लिए तीन बार अंजलि में जल से तर्पण करना न भूलें.

सूर्योदय के समय सूर्य को देखकर गायत्री मंत्र का उच्चारण करें, इससे आपकी कुंडली मे सूर्य की स्थिति मजबूत होगी. सूर्य को मजबूत करने के लिए माणिक्य भी धारण कर सकते हैं, बशर्ते किसी योग्य ज्योतिषी द्वारा पहले कुंडली जांच लें.

हर शनिवार को पीपल या वट की जड़ों में दूध चढाएं.

पितृपक्ष मे अपने पितरों की याद मे वृक्ष, विशेषकर पीपल लगाकर, उसकी सेवा करने से भी पितृदोष से राहत मिलती है.


अगले लेख में पढें,  क्या है सर्वपितृ अमावस्या का महत्व ?

                                                           !! हरिॐ तत्सत्‌ !!

                                                                                                         ''वशिष्ठ''

Saturday 13 October 2012

कैसे बनता है पितृदोष ?


                भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को पूर्णिमा का श्राद्ध होने के साथ-साथ 'महालयारम्भ' भी होता है. महालय का अर्थ है विभिन्न लोकों में रह रहे पितृगणों का भूलोक (सरलता में इसे पृथ्वी कह सकते हैं) में एकत्र होना. इस तरह भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर सर्वपितृ अमावस्या तक पितृगण सूक्ष्म रुप से भूलोक में ही वास करते हैं. इस पितृपक्ष के समय में पितृगण अपने वंशजों के द्वार पर जाकर, उनसे पितृयज्ञ, श्राद्ध व तर्पणादि की आशा से प्रतीक्षा करते हैं. जब कोई वंशज अपने पूर्वजों के निमित्त ये पवित्र कर्म करता है तो पितरों को अपनी स्थिति से उर्ध्व गति प्राप्त होती है व साथ ही साथ वंशज, पितृऋण से उऋण होता चला जाता है और बदले पितृगण भी अपने वंशजों को संतति, प्रगति व सुख-समृद्धि के वर प्रदान करते हैं. यहाँ यह बात ध्यानपूर्वक समझनी चाहिए कि पितृगण स्वकीय कर्मों के फलस्वरूप किसी भी योनि या अवस्था में हो, वे सदैव अपने वंशज से पितृकर्मों की आशा करते हैं क्योंकि जिस प्रकार हम अपने पूर्वजों के कर्मों के शुभाशुभ फलों से जुडे हैं उसी तरह हमारे पितृ भी हमारे शुभाशुभ कर्मों से जुडे रहते हैं.

             यदि ऐसा ना हो तो ऐसी परिस्थितियों में उस व्यक्ति के पितृगण रूष्ट होकर चले जाते हैं और पितृऋण, जिसे चुकाना हम सभी का कर्त्तव्य है, पितृदोष में बदल जाता है और उस परिवार की आने वाली पीढियों की जन्मकुंडलियों में पितृदोष के रुप में प्रकट होता है. कभी-कभी तो ऐसे अतृप्त पितृगण, प्रेतयोनि में चले जाते हैं और इसके बाद तो जैसे उस परिवार पर कष्टों का पहाड ही टूट पडता है. इसलिए प्रत्येक मनुष्य को पितृकर्म को श्रद्धपूर्वक अवश्य ही करना चाहिए.


अगले लेख में पढें, पितृदोष निवारण के कुछ सरल उपाय...

                                                            !! हरिॐ तत्सत्‌ !!

                                                                                                            ''वशिष्ठ''

Tuesday 9 October 2012

इन्दिरा एकादशी - 11.10.2012


भटकते हुए पितरों को गति देने वाली, पितृपक्ष की एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है. इस एकादशी का व्रत करने वाले के सात पीढ़ियों तक के पितृ तर जाते हैं. इस एकादशी का व्रत करने वाला स्वयं मोक्ष प्राप्त करता है.


* विधि

इस एकादशी के व्रत और पूजा का विधान वही है जो अन्य एकादशियों का है. अंतर केवल यह है कि इस दिन  श्री शालिग्राम की पूजा की जाती है. इस दिन स्नानादि से पवित्र होकर भगवान शालिग्राम को पंचामृत से स्नान कराकर भोग लगाना चाहिए तथा पूजा कर आरती करनी चाहिए. फिर पंचामृत वितरण कर, ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिए. इस दिन पूजा तथा प्रसाद में तुलसीदल का प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है.


* कथा

युधिष्ठिर ने पूछा : हे मधुसूदन ! कृपा करके मुझे यह बताइये कि आश्विन के कृष्णपक्ष में कौन सी एकादशी होती है ?

भगवान श्रीकृष्ण बोले : राजन् ! आश्विन (गुजरात महाराष्ट्र के अनुसार भाद्रपद) के कृष्णपक्ष में ‘इन्दिरा’ नाम की एकादशी होती है. उसके व्रत के प्रभाव से बड़े-बड़े पापों का नाश हो जाता है. नीच योनि में पड़े हुए पितरों को भी यह एकादशी सदगति देनेवाली है.

राजन् ! पूर्वकाल की बात है. सत्ययुग में इन्द्रसेन नाम से विख्यात एक राजकुमार थे, जो माहिष्मतीपुरी के राजा होकर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते थे. उनका यश सब ओर फैल चुका था.

राजा इन्द्रसेन भगवान विष्णु की भक्ति में तत्पर हो गोविन्द के मोक्षदायक नामों का जप करते हुए समय व्यतीत करते थे और विधिपूर्वक अध्यात्मतत्त्व के चिन्तन में संलग्न रहते थे. एक दिन राजा राजसभा में सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतने में ही देवर्षि नारद आकाश से उतरकर वहाँ आ पहुँचे. उन्हें आया हुआ देख राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गये और विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें आसन पर बिठाया. इसके बाद वे इस प्रकार बोले: ‘ हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपा से मेरी सर्वथा कुशल है. आज आपके दर्शन से मेरी सम्पूर्ण यज्ञ क्रियाएँ सफल हो गयीं. देवर्षे ! अपने आगमन का कारण बताकर मुझ पर कृपा करें.

नारदजी ने कहा : नृपश्रेष्ठ ! सुनो, मेरी बात तुम्हें आश्चर्य में डालनेवाली है. मैं ब्रह्मलोक से यमलोक में गया था. वहाँ एक श्रेष्ठ आसन पर बैठा और यमराज ने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की. उस समय यमराज की सभा में मैंने तुम्हारे पिता को भी देखा था. वे व्रतभंग के दोष से वहाँ आये थे (उन्होने एकादशी का व्रत मध्य में छोड दिया था. उसके कारण उन्हें यमलोक में जाना पडा). राजन् ! उन्होंने तुमसे कहने के लिए एक सन्देश दिया है, उसे सुनो, उन्होंने कहा है: ‘बेटा ! मुझे ‘इन्दिरा एकादशी’ के व्रत का पुण्य देकर स्वर्ग में भेजो.’ उनका यह सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ. राजन् ! अपने पिता को स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने के लिए ‘इन्दिरा एकादशी’ का व्रत करो.

राजा ने पूछा : भगवन् ! कृपा करके ‘इन्दिरा एकादशी’ का व्रत बताइये. किस पक्ष में, किस तिथि को और किस विधि से यह व्रत करना चाहिए.

नारदजी ने कहा : राजेन्द्र ! सुनो, मैं तुम्हें इस व्रत की शुभकारक विधि बतलाता हूँ. आश्विन मास के कृष्णपक्ष में दशमी के उत्तम दिन को श्रद्धायुक्त चित्त से प्रतःकाल स्नान करो. फिर मध्याह्नकाल में स्नान करके एकाग्रचित्त हो एक समय भोजन करो तथा रात्रि में भूमि पर सोओ. रात्रि के अन्त में निर्मल प्रभात होने पर एकादशी के दिन दातुन करके मुँह धोओ. इसके बाद भक्तिभाव से निम्नांकित मंत्र पढ़ते हुए उपवास का नियम ग्रहण करो:

अघ स्थित्वा निराहारः सर्वभोगविवर्जितः |
श्वो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ||

‘कमलनयन भगवान नारायण ! आज मैं सब भोगों से अलग हो निराहार रहकर कल भोजन करुँगा. अच्युत ! आप मुझे शरण दें.’


Monday 8 October 2012

पितृदोष

                                                 
                           पितृदोष सनातन धर्म की सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकल्पनाओं में से एक है. वर्तमान समय में पितृदोष के बारे में बहुत-सी भ्रांतियां आमजन में फैली हुई हैं जिसका कारण है कि पितृदोष के बारे में बहुत से ज्योतिषियों और पंडितों का यह मत है कि पितृदोष पूर्वजों का श्राप होता है, जिसके कारण इससे पीड़ित व्यक्ति जीवन भर तरह-तरह की समस्याओं और परेशानियों, विशेषकर वंशवृद्धि न होना व गृह क्लेश आदि से जूझता रहता है तथा बहुत प्रयास करने पर भी उसे जीवन में सफलता नहीं मिलती और इसके निवारण के लिए पीड़ित व्यक्ति को पूर्वजों की पूजा करवाने के लिए कहा जाता है, जिससे उसके पितृ(पितर) उस पर प्रसन्न हो जाएं तथा उसकी परेशानियों को कम कर दें, जबकि वास्तविकता में यह सारी की सारी धारणा गलत है क्योंकि पितृदोष से पीड़ित व्यक्ति के पितृ उसे श्राप नहीं देते बल्कि ऐसे व्यक्ति के पितृ तो स्वयं ही शापित होते हैं, जिसका कारण उनके द्वारा किए गए बुरे कर्म होते हैं और जिनका भुगतान उनके वंश में पैदा होने वाले वंशजों को भी करना पड़ता है. जिस तरह संतान अपने पूर्वजों के गुण-दोष धारण करती है, अपने वंश के खून में चलने वाली अच्छाईयां और बीमारियां धारण करती है, अपने बाप-दादाओं से मिली संपत्ति तथा ऋण धारण करती है, पूर्वजों का यश और अपयश धारण करती है उसी तरह से अपने पूर्वजों के द्वारा किए गए अच्छे एवम्‌ बुरे कर्मों के फलों को भी धारण करना पड़ता है.


                          कुछ ज्योतिषी तथा पंडित पितृदोष का कारण पितरों का श्राद्ध ठीक से न होना और उससे पितरों के कुपित होने को बताते हैं, जबकि यह संभव ही नहीं है क्योंकि किसी भी व्यक्ति की कुंडली के योग और दोष उस व्यक्ति के जन्म के समय ही निश्चित्‌ हो जाते हैं, तो इसके बाद कोई भी व्यक्ति अपने जीवन काल में अच्छे-बुरे जो भी कर्म करता है, उनके फलस्वरूप पैदा होने वाले योग-दोष उसकी इस जन्म की कुंडली में आ ही नहीं सकते बल्कि ऐसे योग-दोष उसकी अगले जन्मों की कुंडलियों में आते हैं. तो चाहे कोई व्यक्ति अपने पूर्वजों का श्राद्ध-कर्म ठीक तरह से करे या न करे, उनसे पैदा होने वाले योग-दोष उस व्यक्ति की इस जन्म की कुंडली में कैसे आ सकते हैं? इसलिए जो पितृदोष किसी भी व्यक्ति की इस जन्म की कुंडली में उपस्थित है उसका उस व्यक्ति के इस जन्म के कर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि वह पितृदोष तो उस व्यक्ति को इस जन्म में अच्छे-बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता मिलने से पहले ही निर्धारित हो गया था.


                            पितृदोष के मूल सिद्धांत को एक पुराणोक्त कथा से आसानी से समझा जा सकता है. यह कथा पतितपावनी गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के साथ जुड़ी है. प्राचीन काल में रघुकुल में सगर नाम के राजा हुए, इनके पुत्रों ने भ्रमवश तपस्यारत कपिल मुनि पर आक्रमण कर दिया और कपिल मुनि के नेत्रों से निकली क्रोधाग्नि ने इन सब को भस्म कर दिया. राजा सगर को जब इस बात का पता चला तो वह समझ गए कि कपिल मुनि जैसे महात्मा पर आक्रमण करने के पाप कर्म का फल उनके वंश की आने वाली कई पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा. इसलिए उन्होंने तुरंत अपने पौत्र अंशुमन को मुनि के पास जाकर इस पाप कर्म का प्रायश्चित पूछने के लिए कहा जिससे उनके वंश से इस पाप कर्म का प्रभाव दूर हो जाए तथा उनके मृतक पुत्रों को भी सद्‌गति प्राप्त हो. अंशुमन के प्रार्थना करने पर मुनि ने बताया कि इस पाप कर्म का प्रायश्चित करने के लिए उन्हें भगवान ब्रह्माजी को प्रसन्न कर देवनदी गंगा को पृथ्वी पर लाना होगा तथा मृतक राजपुत्रों के अवशेषों को गंगा की पवित्र धारा में प्रवाहित करना होगा, तभी जाकर उनके वंश को इस पाप से मुक्ति मिलेगी. मुनि के कहे अनुसार अंशुमन ने ब्रह्माजी की तपस्या की, किन्तु उनकी जीवन भर की तपस्या से भी ब्रह्माजी प्रसन्न होकर प्रकट नहीं हुए तो उन्होने मरने से पहले यह दायित्व अपने पुत्र दिलीप को सौंप दिया. राजा दिलीप भी जीवन भर ब्रह्माजी की तपस्या करते रहे पर उन्हे भी ब्रह्माजी के दर्शन प्राप्त नहीं हुए तो उन्होने यह दायित्व अपने पुत्र भागीरथ को सौंप दिया. राजा भागीरथ के तप से ब्रह्माजी प्रसन्न होकर प्रकट हुए तथा उन्होने भागीरथ को गंगा को पृथ्वी पर भेजने का वरदान दिया. वरदान देकर जब भगवान ब्रह्माजी जाने लगे तो राजा भागीरथ ने उनसे एक प्रश्न पूछा, “हे परमपिता, मेरे पितामह और पिता ने जीवन भर आपको प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया परंतु आपने उनमें से किसी को भी दर्शन नहीं दिए जबकि मेरी तपस्या तो उनसे कम थी परतु फिर भी आपने मुझे दर्शन और वरदान दिया, हे प्रभु क्या मेरे पूर्वजों की तपस्या में कोई कमी थी जो उनकी तपस्या व्यर्थ गई”. इसके उत्तर में भगवान ब्रह्माजी ने कहा, “राजन, तपस्या कभी भी व्यर्थ नहीं जाती. आपके पूर्वजों की तपस्या तो कपिल मुनि पर आक्रमण करने के पाप कर्म के निवारण में ही चली गई और आपकी तपस्या के फलस्वरूप गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए आवश्यक पुण्य कर्म संचित हुए हैं. यदि आपके पूर्वजों ने तपस्या करके आपके कुल पर चढ़े हुए पाप कर्मों का भुगतान न किया होता तो आज आपको मेरा दर्शन और वरदान प्राप्त नहीं होता”.


                                 इस कथा से स्पष्ट हो जाता है कि राजा सगर के पुत्रों के पाप कर्म से उनके वंश पर जो पितृॠण चढा, उसका भुगतान उनके वंश मे आने वाली पीढ़ियों को करना पड़ा. इस तरह पितृदोष पूर्वजों के श्राप देने से नहीं बल्कि पूर्वजों के स्वयं शापित होने से बनता है और इसके निवारण के लिए पूर्वजों की पूजा नहीं करनी होती है बल्कि पूर्वजों के उद्धार के लिए पितृयज्ञ-तर्पणादि पुण्य कर्म करने होते हैं. जिनके प्रभाव से पितृ अपने पापकर्मों से मुक्त हो सकें.


                               पितृदोष को समझ लेने के बाद यह भी जान लेना चाहिए कि जन्मकुंडली में उपस्थित किन लक्षणों से पितृदोष का पता चलता है? नव-ग्रहों में सूर्य स्पष्ट रूप से पूर्वजों के प्रतीक हैं, इसलिए किसी कुंडली में सूर्य को बुरे ग्रहों की दृष्टि-युति से पीडित होने पर पितृदोष लगता है. इसके अलावा कुंडली का नवम भाव पूर्वजों से संबंधित होता है, इसलिए यदि कुंडली का नवम भाव या नवमेश बुरे ग्रहों से पीडित हों तो यह भी पितृदोष कहलाता है. इसके अलावा केन्द्र-त्रिकोण व राहु से जुडी कुछ अन्य स्थितियाँ भी पितृदोष बताती हैं. पितृदोष प्रत्येक कुंडली में अलग-अलग तरह के प्रभाव दिखाता है जिनका पूरा ज्ञान कुंडली का विस्तारपूर्वक अध्ययन करने के बाद ही होता है. पितृदोष के निवारण के लिए सबसे पहले कुंडली में उन ग्रहों की पहचान की जाती है जो कुंडली में पितृदोष बना रहे हैं और उसके पश्चात उन ग्रहों के लिए उपाय किए जाते हैं जिनसे पितृदोष के बुरे प्रभावों को कम किया जा सके.
      

[आगामी लेखों में पितृदोष से संबंधित कुछ अन्य योगों व पितृदोष निवारण के उपायों के साथ-साथ, पितृयज्ञ व तर्पणादि की सार्थकता से जुडी शंकाओं पर भी चर्चा होगी]      


                                                                                  अभिनव शर्मा ''वशिष्ठ''