भारतीय संस्कृति में चातुर्मासका सदा से ही विशेष स्थान रहा है। सम्पूर्ण जगत् के पालक भगवान विष्णु के आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के योग-निद्राकाल को चातुर्मास कहा जाता है। यद्यपि गृहस्थोंके लिए चातुर्मासके नियम आषाढ शुक्ल द्वादशी से लागू हो जाते हैं तथापि संन्यासियों का चातुर्मास आषाढी पूर्णिमा से शुरू माना गया है। शास्त्रों में यहां तक लिखा है कि जो लोग द्वादशी से चातुर्मास का विधान प्रारंभ न कर सके हों, वे पूर्णिमा से उसका पालन करना अवश्य शुरू कर दें। जैन धर्म के अनुयायी चातुर्मासको आषाढ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक मानते हैं। वे इन दोनों तिथियों को चौमासी चौदस कहते हैं। सनातन धर्म में समस्त मांगलिक कार्यो के शुभारंभ में संकल्प भगवान विष्णु को साक्षी मानकर ही किए जाते हैं। अत: श्रीहरि के शयनकाल (चातुर्मास) में विवाह, मुण्डन, यज्ञोपवीत आदि सभी शुभ कार्य निषिद्ध बताए गए हैं।
अब यह चातुर्मासशुरू होने जा रहा है। इसकी अवधि में किसी भी प्रिय वस्तु का परित्याग करके उसका दान देने से अनन्त पुण्यफल प्राप्त होता है। चातुर्मास में अलग-अलग वस्तुओं को त्यागने का भी एक पृथक् आध्यात्मिक लाभ मिलता है। पद्मपुराणमें भगवान शंकर का कथन है- चातुर्मासमें गुड का त्याग करने से मनुष्य को मधुरता प्राप्त होती है। तेल को त्याग देने से दीर्घायु संतान और इत्र को त्यागने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। पान का त्याग करने से प्राणी भोग-सामग्री से सम्पन्न होता है। घी के त्याग से लावण्य मिलता है। फल को त्यागने से कुटुम्ब में वृद्धि होती है। चातुर्मास में अनार,नीबू और नारियल का त्याग करने वाला श्रीहरि का सामीप्य प्राप्त करता है। जो मनुष्य चौमासे में गेहूं, जौ और चावल को त्यागता है, उसे अनेक यज्ञों का फल प्राप्त होता है। जो व्यक्ति चौमासे में दूध, दही, गुड, साग और पत्र को छोड देता है, वह सद्गति का अधिकारी बनता है। भगवान हृषीकेशके शयन करने पर पत्तियों के साग, लौकी तथा सिले हुए वस्त्र को त्यागने वाला कभी नरक में नहीं जाता है। जिसने चौमासे में असत्य भाषण, क्रोध, शहद तथा पर्व के अवसर पर भोग- विलास को त्याग दिया, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलेगा। चौमासे में नमक को त्याग देने वाले के सभी कर्म सफल होते हैं। चातुर्मास में शय्या को त्यागकर भूमि पर शयन करना ही उचित रहता है।
सामान्यत:चातुर्मास में लौकी, बैंगन, गाजर, मशरूम, मूली, लसोडा, कैथा, सेम, लम्बी फलियां, उडद, टमाटर, राजमा, लोबिया, परवल और अचार न खाने का निर्देश मिलता है। जो यह न कर सकें वे सावन में साग, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध और कार्तिक में दाल त्याग दें। भगवान विष्णु के योगनिद्रा में लीन होने के दिन से पाँच दिन तक उपवास रखकर छठे दिन भोजन करने वाला समस्त यज्ञों का फल प्राप्त करता है। चौमासे में जो सदा तीन रात उपवास करते हुए चौथे दिन सात्विक भोजन करता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता। जो चातुर्मास में अयाचित पदार्थो का सेवन करता है, उसका स्वजनों से कभी वियोग नहीं होता। उपवास करने में असमर्थ चातुर्मास में मात्र एक वक्त स्वल्पाहार ग्रहण करें।
चातुर्मास में आत्म-संयम और ब्रह्मचर्य का भी विशेष महत्व है। जो वैष्णव श्रीहरि के शयनकाल में व्रत-परायण होकर संयम धारण करता है, वह अभीष्ट सिद्धि को पा लेता है। चौमासे में जो भक्त भगवान विष्णु के समक्ष प्रतिदिन पुरुषसूक्त का पाठ करता है, वह शीघ्र ही विद्वानों में श्रेष्ठ हो जाता है। जो अपने हाथ में फल लेकर श्रीहरि की नित्य 108 परिक्रमा करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। चातुर्मास में मौनव्रतधारण करने वाला देवत्व प्राप्त करता है। इस अवधि में ॐ नमो नारायणाय मंत्र या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जप सौगुना अधिक फल प्रदान करता है। चौमासे में कांसे के बर्तनों का प्रयोग वर्जित है। चौमासे में पलाश के पत्तों में किया गया भोजन सब पातकों को नष्ट करके एकादशी-व्रत का पुण्यफल प्रदान करता है। चातुर्मास में तुलसीदल, तिल और कुशों से तर्पण करने पर कोटिगुना फल प्राप्त होता है। चौमासे में अपने हाथ से भोजन बनाकर खाने वाला इन्द्र के समान प्रभावशाली बन जाता है। श्रीहरिके मंदिर में संगीत-नृत्य से उत्सव करने वाला उनकी अनुकम्पा का भागी अवश्य बनता है।
स्कन्दपुराण में चातुर्मास में पुरुषोत्तम क्षेत्र की यात्रा (जगन्नाथपुरी) का अतिशय माहात्म्य वर्णित है। पुरी में समुद्र-स्नान करके भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने वाला भगवत्कृपा का पात्र बन जाता है। पुरुषोत्तम क्षेत्र में मात्र एक दिन-रात ही निवास करने से अत्यन्त पुण्य प्राप्त होता है। चातुर्मासमें ब्रजमण्डल की तीर्थयात्रा अथवा ब्रज में वास करने से भी श्रीहरि प्रसन्न होते हैं। भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने पर समस्त तीर्थो का तेज जल में प्रविष्ट हो जाता है। अतएव किसी भी पवित्र नदी या जलाशय में नित्य स्नान करने से पाप धुलते हैं। शास्त्रों में वर्णित विधान का लाभ केवल सच्चा भक्त ही उठा सकता है। पाखण्डी और पापाचारी गलत कार्यो को छोडने पर ही लाभान्वित हो सकते हैं।
चातुर्मास में जिस प्रिय वस्तु का परित्याग किया जाता है, उसका दान देने पर ही नियम पूर्ण होता है। वस्तुत:चातुर्मास में बनाए गए शास्त्रीय विधानों का मूल उद्देश्य मनुष्य को त्याग और संयम की शिक्षा देना ही है। चातुर्मासके नियमों का पालन करने से आत्मानुशासनकी भावना जागृत होती है। खान-पान और आचार-विचार पर नियंत्रण रखने से ही आध्यात्मिक साधना फलीभूत होती है। इससे यह स्पष्ट है कि चातुर्मास सही मायनों में हमें संयम और सदाचार की प्रेरणा देता है।
अभिनव वशिष्ठ.
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