Friday 29 June 2012

संयम और सदाचार का प्रेरक चातुर्मास



               भारतीय संस्कृति में चातुर्मासका सदा से ही विशेष स्थान रहा है। सम्पूर्ण जगत् के पालक भगवान विष्णु के आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के योग-निद्राकाल को चातुर्मास कहा जाता है। यद्यपि गृहस्थोंके लिए चातुर्मासके नियम आषाढ शुक्ल द्वादशी से लागू हो जाते हैं तथापि संन्यासियों का चातुर्मास आषाढी पूर्णिमा से शुरू माना गया है। शास्त्रों में यहां तक लिखा है कि जो लोग द्वादशी से चातुर्मास का विधान प्रारंभ न कर सके हों, वे पूर्णिमा से उसका पालन करना अवश्य शुरू कर दें। जैन धर्म के अनुयायी चातुर्मासको आषाढ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी तक मानते हैं। वे इन दोनों तिथियों को चौमासी चौदस कहते हैं। सनातन धर्म में समस्त मांगलिक कार्यो के शुभारंभ में संकल्प भगवान विष्णु को साक्षी मानकर ही किए जाते हैं। अत: श्रीहरि के शयनकाल (चातुर्मास) में विवाह, मुण्डन, यज्ञोपवीत आदि सभी शुभ कार्य निषिद्ध बताए गए हैं।

                अब यह चातुर्मासशुरू होने जा रहा है। इसकी अवधि में किसी भी प्रिय वस्तु का परित्याग करके उसका दान देने से अनन्त पुण्यफल प्राप्त होता है। चातुर्मास में अलग-अलग वस्तुओं को त्यागने का भी एक पृथक् आध्यात्मिक लाभ मिलता है। पद्मपुराणमें भगवान शंकर का कथन है- चातुर्मासमें गुड का त्याग करने से मनुष्य को मधुरता प्राप्त होती है। तेल को त्याग देने से दीर्घायु संतान और इत्र को त्यागने से सौभाग्य की प्राप्ति होती है। पान का त्याग करने से प्राणी भोग-सामग्री से सम्पन्न होता है। घी के त्याग से लावण्य मिलता है। फल को त्यागने से कुटुम्ब में वृद्धि होती है। चातुर्मास में अनार,नीबू और नारियल का त्याग करने वाला श्रीहरि का सामीप्य प्राप्त करता है। जो मनुष्य चौमासे में गेहूं, जौ और चावल को त्यागता है, उसे अनेक यज्ञों का फल प्राप्त होता है। जो व्यक्ति चौमासे में दूध, दही, गुड, साग और पत्र को छोड देता है, वह सद्गति का अधिकारी बनता है। भगवान हृषीकेशके शयन करने पर पत्तियों के साग, लौकी तथा सिले हुए वस्त्र को त्यागने वाला कभी नरक में नहीं जाता है। जिसने चौमासे में असत्य भाषण, क्रोध, शहद तथा पर्व के अवसर पर भोग- विलास को त्याग दिया, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल मिलेगा। चौमासे में नमक को त्याग देने वाले के सभी कर्म सफल होते हैं। चातुर्मास में शय्या को त्यागकर भूमि पर शयन करना ही उचित रहता है।

               सामान्यत:चातुर्मास में लौकी, बैंगन, गाजर, मशरूम, मूली, लसोडा, कैथा, सेम, लम्बी फलियां, उडद, टमाटर, राजमा, लोबिया, परवल और अचार न खाने का निर्देश मिलता है। जो यह न कर सकें वे सावन में साग, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध और कार्तिक में दाल त्याग दें। भगवान विष्णु के योगनिद्रा में लीन होने के दिन से पाँच दिन तक उपवास रखकर छठे दिन भोजन करने वाला समस्त यज्ञों का फल प्राप्त करता है। चौमासे में जो सदा तीन रात उपवास करते हुए चौथे दिन सात्विक भोजन करता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता। जो चातुर्मास में अयाचित पदार्थो का सेवन करता है, उसका स्वजनों से कभी वियोग नहीं होता। उपवास करने में असमर्थ चातुर्मास में मात्र एक वक्त स्वल्पाहार ग्रहण करें।

               चातुर्मास में आत्म-संयम और ब्रह्मचर्य का भी विशेष महत्व है। जो वैष्णव श्रीहरि के शयनकाल में व्रत-परायण होकर संयम धारण करता है, वह अभीष्ट सिद्धि को पा लेता है। चौमासे में जो भक्त भगवान विष्णु के समक्ष प्रतिदिन पुरुषसूक्त का पाठ करता है, वह शीघ्र ही विद्वानों में श्रेष्ठ हो जाता है। जो अपने हाथ में फल लेकर श्रीहरि की नित्य 108 परिक्रमा करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। चातुर्मास में मौनव्रतधारण करने वाला देवत्व प्राप्त करता है। इस अवधि में ॐ नमो नारायणाय मंत्र या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जप सौगुना अधिक फल प्रदान करता है। चौमासे में कांसे के बर्तनों का प्रयोग वर्जित है। चौमासे में पलाश के पत्तों में किया गया भोजन सब पातकों को नष्ट करके एकादशी-व्रत का पुण्यफल प्रदान करता है। चातुर्मास में तुलसीदल, तिल और कुशों से तर्पण करने पर कोटिगुना फल प्राप्त होता है। चौमासे में अपने हाथ से भोजन बनाकर खाने वाला इन्द्र के समान प्रभावशाली बन जाता है। श्रीहरिके मंदिर में संगीत-नृत्य से उत्सव करने वाला उनकी अनुकम्पा का भागी अवश्य बनता है।

               स्कन्दपुराण में चातुर्मास में पुरुषोत्तम क्षेत्र की यात्रा (जगन्नाथपुरी) का अतिशय माहात्म्य वर्णित है। पुरी में समुद्र-स्नान करके भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने वाला भगवत्कृपा का पात्र बन जाता है। पुरुषोत्तम क्षेत्र में मात्र एक दिन-रात ही निवास करने से अत्यन्त पुण्य प्राप्त होता है। चातुर्मासमें ब्रजमण्डल की तीर्थयात्रा अथवा ब्रज में वास करने से भी श्रीहरि प्रसन्न होते हैं। भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने पर समस्त तीर्थो का तेज जल में प्रविष्ट हो जाता है। अतएव किसी भी पवित्र नदी या जलाशय में नित्य स्नान करने से पाप धुलते हैं। शास्त्रों में वर्णित विधान का लाभ केवल सच्चा भक्त ही उठा सकता है। पाखण्डी और पापाचारी गलत कार्यो को छोडने पर ही लाभान्वित हो सकते हैं।

               चातुर्मास में जिस प्रिय वस्तु का परित्याग किया जाता है, उसका दान देने पर ही नियम पूर्ण होता है। वस्तुत:चातुर्मास में बनाए गए शास्त्रीय विधानों का मूल उद्देश्य मनुष्य को त्याग और संयम की शिक्षा देना ही है। चातुर्मासके नियमों का पालन करने से आत्मानुशासनकी भावना जागृत होती है। खान-पान और आचार-विचार पर नियंत्रण रखने से ही आध्यात्मिक साधना फलीभूत होती है। इससे यह स्पष्ट है कि चातुर्मास सही मायनों में हमें संयम और सदाचार की प्रेरणा देता है।

अभिनव वशिष्ठ.
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*** आषाढ शुक्ल एकादशी (देवशयनी एकादशी) इस वर्ष 30 जून ***


               पद्मपुराण के उत्तरखण्डमें भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर को इस व्रत का माहात्म्य बताते हुए कहते हैं-आषाढ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम हरिशयनी है | यह तिथि महान पुण्यमयी, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली तथा सब पापों को हरनेवाली है | आषाढ शुक्ल एकादशी के दिन कमल पुष्प से कमललोचनभगवान विष्णु का पूजन तथा व्रत करनेवाले को तीनों लोकों का एवं त्रिदेवोंकी पूजा का फल स्वत:प्राप्त हो जाता है | हरिशयनीएकादशी/देवशयनीएकादशी के दिन से श्रीहरिका एक स्वरूप राजा बलि के यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागर में शेषनाग की शय्यापर तब तक शयन करता है, जब तक आगामी कार्तिक शुक्ल एकादशी (हरि-प्रबोधिनी एकादशी) नहीं आ जाती | आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के चातुर्मास में मनुष्य को भलीभांति धर्म का आचरण करना चाहिए | जो प्राणी इस व्रत का अनुष्ठान करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है | इस कारण हरिशयनी एकादशी का व्रत अवश्य करें |

               देवर्षि नारद के पूछने पर महादेव शंकरजी ने इस एकादशी के व्रत के विधान का वर्णन इस प्रकार किया है- आषाढ के शुक्लपक्ष में एकादशी के दिन उपवास करके भक्तिपूर्वक चातुर्मास-व्रत के नियम को ग्रहण करें | श्रीहरिके योग-निद्रा में प्रवृत्त हो जाने पर वैष्णव चार मास तक भूमि पर शयन करें | भगवान विष्णु की शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हुए स्वरूप वाली सौम्य प्रतिमा को पीताम्बर पहिनाएं | तत्पश्चात एक सुंदर पलंग पर स्वच्छ सफेद चादर बिछाकर तथा उस पर एक मुलायम तकिया रखकर शैय्या को तैयार करें | विष्णु-प्रतिमा को दूध, दही, शहद, लावा और शुद्ध घी से नहलाकर श्रीविग्रह पर चंदन का लेप करें | इसके बाद धूप-दीप दिखाकर मनोहर पुष्पों से उस प्रतिमा का श्रृंगार करें |

तदोपरांत निम्नलिखित मंत्र से प्रार्थना करें-
सुप्तेत्वयिजगन्नाथ जगत्सुप्तंभवेदिदम्।
विबुद्धेत्वयिबुध्येतजगत्सर्वचराचरम्॥
हे जगन्नाथ! आपके सो जाने पर यह सारा जगत सुप्त हो जाता है तथा आपके जागने पर संपूर्ण चराचर जगत् जागृत हो उठता है।

                 श्रीहरिके श्रीविग्रहके समक्ष चातुर्मास-व्रतके नियम ग्रहण करें | स्त्री हो या पुरुष, जो भक्त व्रत करे, वह हरि-प्रबोधिनी एकादशी तक अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करे | जिस वस्तु का परित्याग करें, उसका दान दें |

" ॐ नमोनारायणाय या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय " मंत्र का तुलसी की माला पर जप करें |
भगवान विष्णु का इस प्रकार ध्यान करें-

शान्ताकारंभुजगशयनं पद्मनाभंसुरेशं
विश्वाधारंगगनसदृशं मेघवर्णशुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तंकमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं
वन्दे विष्णुंभवभयहरं सर्वलौकेकनाथम्॥
जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्यापर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो देवताओं के भी ईश्वर और सम्पूर्ण जगत के आधार हैं, जो आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अतिसुंदरहैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किए जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरणरूप भय का नाश करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपतिकमलनेत्रभगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।

               हरिशयनीएकादशी की रात्रि में जागरण करते हुए हरिनाम-संकीर्तन करें | इस व्रत के प्रभाव से भक्त की सभी मनोकामनाएंपूर्ण होती हैं |
हरिशयनीएकादशी के व्रत को सतयुग में परम प्रतापी राजा मान्धाता ने अपने राज्य में अनावृष्टि से उत्पन्न अकाल की स्थिति को समाप्त करने के लिए किया था | हरिशयनीएकादशी के व्रत का सविधि अनुष्ठान करने से घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है तथा सुख-समृद्धि का आगमन होता है |

इस वर्ष 30 जून को देवशयनी एकादशी व्रत किया जाना शास्त्रसम्मत है |

अभिनव वशिष्ठ.
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Tuesday 19 June 2012

आषाढी गुप्त नवरात्रा (20.06.12 - 28.06.12)



            कालचक्र के विभाग अनुसार एक दिन-रात में चार संधिकाल होते हैं, जिन्हें हम प्रात:, मध्यान्ह, सायं और मध्यरात्रि कहते हैं। इन्हीं को उत्तरायण और दक्षिणायण भी कहा गया है। जिस प्रकार मकर और कर्क वृत से अयन परिवर्तन होता है, उसी प्रकार मेष और तुला से उत्तर तथा दक्षिण गोल परिवर्तन होता है। एक वर्ष में कुल चार संधियां होती हैं। दो अयन परिर्वतन की और दो गोल परिवर्तन की। इनको ही हम नवरात्र पर्व के रूप में मनाते हैं।

           प्रात: काल- गोलसंधि-चैत्र नवरात्र
मध्यान्ह-अयन संधि- आषाढ़ नवरात्र (गुप्त नवरात्र)
सायंकाल- गोल संधि- आश्विन नवरात्र
मध्यरात्रि- अयन संधि- माघ नवरात्र (गुप्त नवरात्र)
आषाढ़ एवं माघ मास में गुप्त नवरात्र होते हैं। अयन संधि के अनुसार आषाढ़ और माघ मास के नवरात्र गुप्त रूप से मनाए जाते हैं। यह समय तांत्रिकों के लिए विशेष साधना का माना गया है। यह पर्व रात्रि प्रधान है। तंत्र शास्त्र में "रात्रि स्पा यतो देवी दिवा स्पो महेश्वर" अर्थात दिन को शिव (पुरूष) स्पा में तथा रात्रि को (शक्ति) रूपा माने गए हैं।

           आदि शक्ति मां दुर्गा का स्वरूप तीव्र और शांत दोनों प्रकार का है। तामसी कार्यो अर्थात शत्रु बाधा, उच्चाटन, मारण, सम्मोहन आदि दोष निवारण के लिए देवी स्वरूप चंद्रिका काली की तथा समस्त मनोकामना की पूर्ति एवं आर्थिक-व्यापारिक उन्नति के लिए मां दुर्गा के शांत स्वरूप की साधना की जाती है। इस वर्ष 20 जून बुधवार आषाढ़ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से गुप्त नवरात्र प्रारंभ हो रहे हैं। जिन व्यक्तियों की जन्म कुंडली में कू्र ग्रहों से परेशानी हो उनके लिए ग्रहों से संबंधित शांति का यह अच्छा समय है। प्रतिकूल ग्रहों को शांत करने के लिए और मंत्र-यंत्र सिद्धि के लिए गुप्त नवरात्र उत्तम माना गया है |

अभिनव वशिष्ठ.
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Monday 11 June 2012

कैसा है आपके घर में ऊर्जा का प्रवाह ?

               किसी भी स्‍थान विशेष का वास्‍तु देखने का मूल अर्थ यह है कि वह स्‍थान किसी व्‍यक्ति अथवा संस्‍था के लिए कितना उपयुक्‍त अथवा अनुपयुक्‍त है। वास्‍तु के नियम भी कमोबेश इसी आधार पर बताए गए हैं। किसी घर में वास्‍तु के अनुरूप निर्माण या वस्‍तुओं को किसी स्‍थान विशेष पर रखना अथवा किसी दफ्तर निर्माण में मूल रूप से अंतर होता है। इसे देवताओं या ऊर्जा, दो आधारों से समझने का प्रयास किया जाता रहा है, अगर देवताओं के आधार पर देखें तो समझना कुछ कठिन प्रतीत होता है, लेकिन अगर इसी वास्‍तु निर्माण को हम ऊर्जा के स्‍तर पर देखें तो आप खुद भी अपने घर के सही वास्‍तु का अनुमान कर सकते हैं।

              वास्‍तु में मूल रूप से तीन बातों का ध्‍यान रखा जाता है। इसमें हवा, पानी और रोशनी शामिल हैं। इन तीनों का बहाव अगर सही हो तो उस घर को वास्‍तु के दृष्टिकोण से उपयुक्‍त कहा जा सकता है। अन्‍य देशों की तुलना में भारत की भौगोलिक स्थिति और मौसम चक्र विशिष्‍ट है। उत्तर की ओर हिमालय, उत्‍तर पश्चिम में रेगिस्‍तान, दक्षिण में समुद्र और पूर्व में पहाडि़यों और समुद्र का मिश्रण। एक ओर हिमालय ठण्‍डे प्रदेशों से आ रही सर्द हवाओं को रोकता है तो अरब की खाड़ी से उठने वाली मानसूनी हवाएं प्रकृति ने केवल भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ही बनाई हैं। आप भारत के किसी भी कोने में जाएं इन विशेषताओं का लाभ आपको जरूर मिलेगा।

* आपके घर का वास्‍तु
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              घर के वास्‍तु के निर्धारण के समय हमें दिशाओं के ऊर्जा स्‍तर को समझना होगा। वास्‍तु में उत्‍तर और पूर्व दिशा को अधिक ऊर्जा वाली दिशाएं बताया गया है। पूर्व में जहां तेज अधिक है वहीं उत्‍तर में गति अधिक है। उत्‍तर-पूर्व को दोनों का लाभ मिलता है। दक्षिण दिशा में तेजी कम लेकिन दाह यानि गर्मी अधिक है। दक्षिण पूर्व में तेज और दाह दोनों होने से यह शुद्ध स्‍थान बनता है। पश्चिम में रोशनी कम है और गति भी। ऐसे उत्‍तरी पश्चिमी कोना दक्षिणी पश्चिमी कोने की तुलना में अधिक ऊर्जा रखता है, लेकिन उत्‍तरी पूर्वी कोने की तुलना में कम। इसे आप हवा के बहाव, रोशनी के आगमन और जल के प्रवाह के रूप में भी देख सकते हैं।

* उत्‍तर पूर्व बच्‍चों का कोना
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               ऊर्जा के इस प्रवाह को समझने के बाद हमें घर में ऊर्जा के प्रवाह के अनुसार ही सदस्‍यों रहने और क्रिया-कलापों के स्‍थान तय करने होंगे। घर का उत्‍तरी पूर्वी कोना अधिकतम ऊर्जा वाला स्‍थान है। यहां उन्‍हीं लोगों को रखा जा सकता है जो इस ऊर्जा के प्रवाह में सहज रह सकें। घर के बच्‍चे इस स्‍थान के लिए सर्वाधिक उपयुक्‍त हैं। पूर्व और उत्‍तर से मिल रही सकारात्‍मक ऊर्जा उन्‍हें तेजी से विकसित करेगी। दक्षिण पूर्व में रसोई बनाने से हमें दक्षिण से मिल रहे दाह और पूर्व से मिल रहे तेज का लाभ होगा। इस स्‍थान पर चूल्‍हा हमेशा जलता रहेगा और स्‍वादिष्‍ट भोजन मिलेगा। दक्षिण पश्चिम में घर के बड़े बुजुर्ग या नियामक सदस्य रह सकते हैं। उनकी गति कम होती है और ऊर्जा का स्‍तर भी। वहां वे सहज रहेंगे। घर के उत्‍तरी पश्चिमी कोने में अधिक सक्रिय सदस्य को रखा जा सकता है, वे ऊर्जा और न्‍यायप्रियता के साथ काम कर सकेंगे, एक और बात जो अनुभवसिद्ध है - विवाह योग्य कन्या को भी यहाँ रखा जा सकता है, चंद्रमा के प्रभाव से सौंदर्य तो बढेगा ही विवाह भी शीघ्र होगा। इसी तरह बिजली के उपकरणों को दक्षिण की दीवार पर और जल से संबंधित वस्‍तुओं को उत्‍तरी क्षेत्र में रखा जाना चाहिए। यह ऊर्जा की प्रकृति के अनुकूल भी होगा।

* ग्रह और उनकी ऊर्जा
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               वास्‍तु की संरचना में ग्रहों को वही स्‍थान दिए गए हैं जैसी उनकी ऊर्जा है। यह सकारात्‍मक या नकारात्‍मक हो सकती है। वास्‍तु का पूर्व सूर्य के पास है। यह तेजोमय है। उत्‍तर पूर्व पर गुरु का अधिकार है। यह सकारात्‍मक और तेज है। उत्‍तर पर बुध का अधिकार है। यह रचनात्‍मक और सक्रिय है। उत्‍तर पश्चिम पर चंद्रमा का अधिकार है। यह रचनात्‍मक लेकिन अधिक विचार करने वाला है। पश्चिम पर शनि का अधिकार है। यह नकारात्‍मक और धीमा है। दक्षिण पश्चिम पर राहू का अधिकार है। यह नकारात्‍मक और रहस्‍य समेटे हुए है। दक्षिण पर मंगल का राज है। यह उग्र और दाह देने वाला है। दक्षिण पश्चिम पर शुक्र का राज है। यह उष्‍ण और तेजयुक्‍त है। यह क्षेत्र की ऊर्जा के हिसाब से ही हम उसे काम में लें तो अधिकतम परिणाम हासिल होंगे।

* सामान्‍य उपचार
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 कुछ सामान्‍य उपचार कर ऊर्जा के स्‍तर को संतुलित रखा जा सकता है -

#सिंह द्वार (घर का मुख्‍य दरवाजे) के आगे किसी प्रकार का अवरोध हो तो उसे हटा देना चाहिए, अथवा सिंह द्वार को वहां से हटा देना चाहिए।
# दक्षिणी कोने में पानी का कम से कम उपयोग करें। वहां दीपक या लाल बल्ब जलाकर रखें।
# उत्‍तरी पश्चिमी कोने में पानी के बहने का साधन बनाए। बर्तन धोने का स्‍थान, वाशिंग मशीन या पेड़ पौधे लगाकर वहां निरंतर पानी गिराया जा सकता है। इससे परिवार में तनाव कम होगा।
# उत्‍तरी और पूर्वी कोनों में दक्षिणी और पश्चिमी कोनों की अपेक्षा अधिक रोशनी का प्रबंध रखें।
# घर में हवा का बहाव सुनिश्चित करने के लिए एक्‍जास्‍ट फैन लगाएं।
# गंदा पानी शुक्र का परिचायक होता है। ऐसे में पूर्व मुखी घरों में घर के दाएं कोने से घर का गंदा पानी निकालने की सलाह दी गई है।
# बाहर से भीतर की ओर शुद्ध जल का प्रवाह उत्‍तरी क्षेत्रों में हो तो बेहतर है।

* चेतना को प्रभावित करता है कचरा
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               हम घर में मौजूद कचरे के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं। इसके चलते हम इसके निस्‍तारण के बारे में भी गंभीरता से नहीं सोचते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कचरा धीरे-धीरे हमें मानसिक, आर्थिक और कई बार शारीरिक स्‍तर पर भी प्रभावित करने लगता है। वास्‍तु निमयों में कचरे का निस्‍तारण तेजी से करने के लिए कहा गया है। जिस मकान की छत पर कचरा जमा होता है, उस मकान के मालिक पर ऋण तेजी से चढ़ता है, इसी के साथ पैसा भी जगह जगह फंस जाता है। छत पर किसी भी सूरत में कचरे का जमाव नहीं होना चाहिए। यह आर्थिक भार से दबा देता है। कचरा जमा करने का दूसरा सबसे बड़ा स्‍थान है अंडरग्राउंड। जिस मकान के तहखाने में भारी मात्रा में कचरा जमा होता है वहां पारिवारिक तनाव तेजी से बढ़ता है। एक स्थिति यह आती है कि छोटी मोटी बातों पर भी बड़े झगड़े होने लगते हैं। अंडरग्राउंड के कचरे का निस्‍तारण भी तुरत फुरत करना चाहिए। इन दो प्रमुख स्‍थानों के अलावा घर में कई ऐसे कोने होते हैं जहां हमारी इच्‍छा के बगैर कचरा एकत्रित होता रहता है। मसलन कागज के टुकड़े, पुराने बैग, पुराने जूते, पुरानी चिठ्ठियां, मैग्‍जीन, ऐश ट्रे, बच्‍चों के टूटे हुए खिलौने, पुरानी बॉल्‍पेन, धातुओं के टुकड़े, अवधिपार दवाएं, पुराने और टूटे बर्तन, सूखे हुए पौधों जैसी हजारों छोटी छोटी चीजें घर में पड़ी रहती हैं और हम इनकी तरफ ध्‍यान भी नहीं दे पाते हैं। इस कचरे के निस्‍तारण से आप बहुत अधिक राहत महसूस कर सकते हैं। आपको जल्द से जल्द यह काम निपटा देना चाहिए।

आशा करता हूँ आप अपने घर की ऊर्जा को अधिकतम लाभ की स्थिति तक ले जाने का प्रयास अवश्य करेंगे...

अभिनव वशिष्ठ.
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Sunday 10 June 2012

कर्म बड़ा या भाग्‍य ?

               जब से ज्‍योतिष विषय का झण्‍डा उठाया तब से मेरे आस-पास के अधिकांश विचारकों ने यह सवाल हमेशा मेरे सामने खड़ा किया कि क्‍या आवश्‍यकता है ज्‍योतिष की जबकि लॉजिक यह कहता है कि जैसा कर्म करोगे वैसे ही फल मिलेंगे (करम प्रधान बिस्व रचि राखा......) | इसके साथ ही दूसरा सवाल यह कि जब सबकुछ पूर्व निर्धारित है तो तुम्‍हारा रोल शुरू होने से पहले ही खत्‍म हो जाता है (होई सोई जो राम रचि राखा.....) |

                दोनों की बातें मेरे इस पेशे को खत्‍म कर देने वाली थीं | लेकिन केवल उन्‍हीं लोगों के समक्ष जो कि इन बातों को इसी अंदाज में समझ चुके थे | बाकी लोगों को अब भी लगता है कि उनकी समस्‍याओं का समाधान मेरे पास है | फिर भी एक विद्यार्थी होने के नाते यह सवाल मेरे सामने बड़ी स्‍पष्‍टता से रहा कि कर्म ही हमारी कुण्‍डली है या भाग्‍य पहले से लिखा जा चुका है | अगर भाग्‍य पहले से तय नहीं है तो क्‍या कर्म से कुण्‍डली को बदला जा सकता है |

इसी क्रम में पिछले दिनों फिर एक बार एक पूर्व सहपाठी ने मुझसे यही सवाल दोहराया कि

'Kya Bhagya vaastav mein he karm se bada hota hai aur kya jyotis se bhagya ko badla ja sakta hai.'

इस सवाल का स्‍पष्‍ट जवाब है पता नहीं |

तो मैं यहाँ क्‍या कर रहा हूं ?

इसके जवाब में, मैं यह कह सकता हूं कि जो लोग अपने कर्म से भाग्‍य को बदलने की सोच रहे हैं, मैं उनकी मदद कर रहा हूँ | एक ज्‍योतिषी किसी जातक की क्‍या मदद कर सकता है, इसका बहुत सटीक वर्णन दक्षिण के प्रसिद्ध ज्‍योतिषी के.एस. कृष्‍णामूर्ति अपनी पुस्‍तक "फंडामेंटल प्रिंसीपल ऑफ एस्‍ट्रोलॉजी" में कर चुके हैं | उनके अनुसार नदी में नाव खेते हुए जब एक नाविक किनारा नहीं मिलने पर हारने लगता है तो उसके पास से गुजर रहा एक अन्‍य नाविक उसे बताता है कि आगे इतनी दूरी पर उथला किनारा या जमीन मिल जाएगी | दूसरा नाविक ज्‍योतिषी हो सकता है |

               मुझे भी अधिकांश मामलों में अपना रोल ऐसा ही लगता है | जिसे जो भोगना है वह तो भोगेगा ही, लेकिन यह भोग कब प्रारंभ होगा ? कब खत्‍म होगा ? क्या उपाय किए जा सकते हैं ? या कैसे मुक्ति मिल सकती है ? इस बारे में, मैं संकेत मात्र दे सकता हूँ, एक रास्ता सुझा सकता हूँ, चलना तो उन्हें स्वयं ही पडेगा |

कडे शब्दों में यूँ समझिये...

"न तो किसी और का दुर्भाग्‍य जी सकता हूँ, न ही किसी को मोक्ष दिला सकता हूँ, लेकिन फिर भी जीवन बदल सकता हूँ |"


अभिनव वशिष्ठ.
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Saturday 9 June 2012

प्राणायाम का प्रभाव (शरीर व मन पर)


                कपालभाती और भस्त्रिका प्राणायाम में जिस प्रकार तेजी से सांस लिया और छोड़ा जाता है उससे रक्त, उत्तकों और कोशिकाओं में विद्यमान कार्बनडाईऑक्साइड की मात्रा कम होती है, कोशिकाओं तक पहुँचने वाले ऑक्सीजन में कोई विशेष बढ़ोत्तरी नहीं होती, क्योंकि एक स्वस्थ व्यक्ति में ऑक्सीजन की मात्रा जितनी आवश्यक है उतनी हमेशा सहज श्वांस लेते रहते पर मिल जाती है, सामान्यतः कार्बनडाईऑक्साइड निकल जाने से श्वसन केंद्र उत्तेजित नहीं होते और संभवत: अन्य तंत्रिका केंद्र भी शांत रहते हैं |

               कपालभाती, भस्त्रिका और नाड़ी शोधन प्राणायाम (जिसमें एक मिनट से अधिक सांस नहीं रोकी गई हों) के समय मुख्य शारीरिक परिर्वतन यह होता है कि तेजी से साँस लेने के अंतिम चरण में रक्त में कार्बनडाईऑक्साइड की जो मात्रा रहती है वह धीरे-धीरे बढ़ती हुई सामान्य स्तर से अधिक हो जाती है | एक मिनट के कुम्भक के दौरान कोशिकाएँ, लाल रक्त कण और फेफड़ों में जो ऑक्सीजन जमा रहता है उसे उपयोग में लाती है |

               प्राणायाम का जो सब से व्यापक प्रभाव है उन में प्रमुख है तंत्रिकातंत्र को शांत, संतुलित, तथा निरभ्र करना, उत्तेजना घटना, ताजगी और स्फूर्ति का अनुभव होना तथा चेतना की प्रखरता |

              इन प्रभावों की व्याख्‍या हमारे आधुनिक शरीर विज्ञान के ज्ञात सिद्धातों के द्वारा नहीं हो सकती | प्राणायाम के अभ्यास से जो सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है, वह है श्वसन केंद्रों का स्वेच्छा से नियंत्रण | संभवत: इसका प्रभाव मस्तिष्क के अन्य उन्नत केंद्रों पर पड़ता है, जिसकी अंतिम परि‍णति मन और इसकी क्रियाओं पर अधिक नियंत्रण और स्वामित्व के रूप में होती है | रक्त में थोड़ी देर तक कार्बनडाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से उत्प्रेरक की तरह का प्रभाव होता है | इसके कारण कोशिकाओं के अंदर होने वाली रासायनिक क्रियाओं की गति बढ़ जाती है | प्राणायाम कठिन व्यायाम है | जिसका प्रभाव हृदय की गति और रक्तचाप पर भी पड़ता है | प्राणायाम आसनों के अभ्यास से अधिक प्रभावशाली और सुरक्षित है | इसका गहन अभ्यास किसी गुरु के मार्गदर्शन में ही करना चाहिए |

(यह प्रयास श्रीगुरुचरणों में समर्पित, जो स्वयं इसका आधार है)

अभिनव वशिष्ठ.

ஜ۩۞۩ஜ हरि ॐ तत्सत्‌ ஜ۩۞۩ஜ

स्वयं का परिष्कार


               जीवन में जितनी भी समस्याएं हैं, उनके मूल में हमारे अपने गलत विचार और बुरे कर्म होते हैं। गलत कामों से निकलने के लिए हमें अपना परिष्कार करना पडेगा। इसी को प्रायश्चित कहते हैं..
पाप कर्म (बुरे काम) इसलिए बढते रहते हैं, क्योंकि करने वाला उनसे होने वाली हानियों पर ध्यान नहीं देता। वह उन्हें अन्य लोगों द्वारा भी अपनाई जाने वाली सामान्य प्रक्रिया मान लेता है और हल्के मन से करता चला जाता है। बाद में यह अभ्यास बन जाता है। धन और अधिकार जैसे लाभ मिलने से यह आकर्षण और भी बढ जाता है। यह आदत स्वभाव का अंग बन जाती है, जो समझाने-बुझाने से भी नहीं छूटती।
इस कुमार्ग से विरत होने का एक ही मार्ग है कि चलने वाले को उस मार्ग की हानियां दिखाई दें। उसे पता हो कि वह अपना और दूसरों का कितना अहित कर चुका है और आगे न जाने कितनी हानि हो सकती है। यह पता चलने के बाद ही हम अपना परिष्कार कर पाएंगे।
             
               बुरे कामों, गलत प्रवृत्तियों और दुर्भावनाओं से दूसरों का अहित और अपना हित सधने की बात कही जाती है, पर वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। कुमार्ग की कंटीली राह पर चलने से अपने ही पैर कांटों से बिंधते हैं। झाडियों को भी हानि होती है। लेकिन घाटे में तो अपने को ही रहना पडा। मस्तिष्क विकृत होने से प्रगति के रचनात्मक कार्र्यो में लग सकने वाली शक्ति नष्ट हो जाती है। यह बहुमूल्य यंत्र (शरीर) विकृत हो जाता है। शारीरिक-मानसिक रोगों की बाढ आ जाती है। अत: बुद्धिमत्ता इसी में है कि अच्छी प्रवृत्ति को अपनाया जाए और अंत:करण को सद्भावनाओं से भरा-पूरा रखा जाए। इस परिष्कार की उपयोगिता इसी दृष्टि से है कि अंत:करण में अनाचार विरोधी प्रतिक्रिया इतने उग्र रूप में उभरे कि भविष्य में उस प्रकार के अनाचरण की गुंजाइश ही न रहे।
अनैतिक दुराव के कारण मन की भीतरी परतों में विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक ग्रंथियां बनती हैं। उनके कारण शारीरिक-मानसिक रोग उठ खडे होते हैं। यह प्रकृति द्वारा बनाई स्वसंचालित दंड व्यवस्था है। इसमें अपना तन-मन न्यायाधीश बनकर अनाचार के दुष्परिणाम प्रस्तुत करता रहता है। शरीर में विष का प्रवेश हो जाए, तो उसे निकाल बाहर करना ही प्राण रक्षा का एकमात्र उपाय है। ठीक उसी प्रकार अनैतिक दुराव की ग्रंथियों को निकाल बाहर करने से ही वह मन:स्थिति प्राप्त होती है, जो सुविकसित जीवन-क्रम बनाने के लिए आवश्यक होती है। इसलिए अनैतिक कृत्यों को किसी के सामने स्वीकारना आवश्यक है।
     
               एक और तरीका है-अपने ऊपर ऐसे दबाव डालना, जिनकी स्मृति देर तक बनी रहे। बच्चे को कभी अधिक गडबडी करने पर अभिभावक हलकी-सी चपत जड देते हैं या दूसरे प्रकार से धमका देते हैं, इससे बच्चे पर सामान्य समझाने-बुझाने की अपेक्षा अधिक असर पडता है। यह थोडा कष्टकर होने पर भी परिणाम की दृष्टि से अच्छा होता है। प्रायश्चित रूप में अपने आपको दंड देने की यह पद्धति "तप-तितीक्षा" के नाम से बनाई गई है। अंतिम चरण क्षतिपूर्ति का है, जो सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें जो हानि पहुंचाई गई है, उसकी पूर्ति होनी चाहिए। सडक पर गड्ढा खोदकर यदि दूसरों को गिराने का आचरण किया गया है, तो जितना श्रम गड्ढा खोदने में किया है, उतना ही उसे भरने में करना होगा। पाप के बराबर पुण्य करना होगा।

युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्यजी

ஜ۩۞۩ஜ हरि ॐ तत्सत्‌ ஜ۩۞۩ஜ

Tuesday 5 June 2012

कुछ सरल अभ्यासों से कमर को बनाएं लचकदार


          यदि आपकी कमर और पेट लचकदार तथा संतुलित हैं तो स्फूर्ति और जोश तो कायम रहेगा ही साथ ही आप कई तरह के रोग से बच जाएंगे | अनियमित और अत्‍यधिक खान-पान के कारण कमर के कमरा बनने में देर नहीं लगती | कमर के छरहरा होने से व्यक्ति फिट नजर तो आता ही है साथ ही उसमें फूर्ति भी बनी रहती है | कमर को छरहरा बनाए रखने के लिए यहाँ प्रस्तुत है कुछ योग अभ्यास|
                                                                                                            
* स्टेप 1- कटि चक्रासन करें| सावधान मुद्रा में खड़े हो जाएँ | फिर दोनों हाथों को कमर पर रखकर कमर से पीछे की ओर जहाँ तक संभव हो झुककर वहाँ रुकें | अब साँस की गति सामान्य रखकर आँखें बंद कर लें और कुछ देर इसी पोजिशन में रुकने के बाद वापस आ जाएँ | 4-5 बार दोनों ओर से इसका अभ्यास कर लें |

* स्टेप 2- इसके बाद पुन: सावधान मुद्रा में खड़े होकर दाएँ हाथ को बाएँ कंधे पर और बाएँ हाथ को दाएँ कंधे पर रखकर पहले दाईं ओर कमर से ‍पीछे की ओर मुड़ें | गर्दन को भी मोड़कर पीछे की ओर देखें | अब साँस की गति सामान्य रखकर आँखें बंद कर लें और कुछ देर इसी पोजिशन में रुकने के बाद वापस आ जाएँ | 4-5 बार दोनों ओर से इसका अभ्यास कर लें |

* स्टेप 3- सावधान मुद्रा में खड़े होकर फिर हथेलियों को पलटकर हाथों को ऊपर उठाकर समानांतर क्रम में सीधा कर लें | साँस लेते हुए कमर को बाईं ओर झुकाएँ | इसमें हाथ भी साथ-साथ बाईं ओर चले जाएँगे | अधिक से अधिक कमर झुकाकर वहाँ रुकें | अब साँस की गति सामान्य रखकर आँखें बंद कर लें और कुछ देर इसी पोजिशन में रुकने के बाद वापस आ जाएँ | 4-5 बार दोनों ओर से इसका अभ्यास कर लें |

* स्टेप 4- शवासन में लेटकर पहले दोनों हाथ समानांतर क्रम में फैला लें | फिर दाएँ पैर को बाईं ओर ले जाएँ और गर्दन को मोड़कर दाईं ओर देखें | इस दौरान बायाँ पैर सीधा ही रखें | फिर इसी क्रम में इसका विपरित करें | 4-5 बार दोनों ओर से इसका अभ्यास कर लें |

* इसके लाभ : यह योग अभ्यास कमर की चर्बी को कम करते है। इसके अलावा यह कब्ज व गैस की प्रॉब्लम दूर करके किडनी, लीवर, आँतों व पैन्क्रियाज को भी स्वस्थ बनाए रखने में सक्षम हैं।

* योग पैकेज : उक्त स्टेप के अलावा आप चाहें तो वृक्षासन, ताड़ासन, त्रिकोणासन, पादस्तासन, आंजनेय आसन और विरभद्रासन भी कर सकते हैं, लेकिन किसी योग शिक्षक की सलाह अनुसार इसके क्रम और विलोम आसन को समझते हुए |

(यह प्रयास श्रीगुरुचरणों में समर्पित, जो स्वयं ही इसका आधार हैं)

अभिनव वशिष्ठ.
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Monday 4 June 2012

खण्डग्रास चंद्रग्रहण : 04-06-12
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ज्येष्ठ शुक्ल पू्र्णिमा सोमवार, दिनाँक 4 जून 2012 ई. को ऑस्ट्रेलिया, उत्तरी-दक्षिणी अमेरिका, पूर्वी एशिया तथा पेसिफिक महासागर में भारतीय समयानुसार दोपहर बाद 3:30 से सायंकाल 5:36 बजे के मध्य खण्डग्रास चंद्रग्रहण दिखाई देगा | इस दिन भा.स्टै.टा. अनुसार 6:50 तक चन्द्रमा पृथ्वी की विरल छाया में रहेगा, अत: भारत के पूर्वी राज्यों में जहाँ चंद्रोदय सायंकाल 6:50 बजे से पहले होगा, वहाँ चन्द्रमा कुछ धुन्धला अवश्य दिखाई देगा, परन्तु इसे ग्रहण की श्रेणी में नही माना जा सकता | अत: ग्रहण के सूतकादि भारत में माने जाने की आवश्यकता नहीं है |

योगासन : क्या हैं? और कहाँ से आए?


योगासन : क्या हैं? और कहाँ से आए?
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         चित्त को स्थिर रखने वाले तथा सुख देने वाले बैठने के प्रकार को आसन कहते हैं | आसन अनेक प्रकार के माने गए हैं | योग में यम और नियम के बाद आसन का तीसरा स्थान है |

* आसन का उद्‍येश्य : आसनों का मुख्य उद्देश्य शरीर के मल का नाश करना है | शरीर से मल या दूषित विकारों के नष्ट हो जाने से शरीर व मन में स्थिरता का अविर्भाव होता है | शांति और स्वास्थ्य लाभ मिलता है | अत: शरीर के स्वस्थ रहने पर मन और आत्मा में संतोष मिलता है |

* आसन और व्यायाम : आसन एक वैज्ञानिक पद्धति है | आसन और अन्य तरह के व्यायामों में फर्क है | आसन जहाँ हमारे शरीर की प्रकृति को बनाए रखते हैं वहीं अन्य तरह के व्यायाम इसे बिगाड़ देते हैं |



'आसनानि समस्तानियावन्तों जीवजन्तव:। चतुरशीत लक्षणिशिवेनाभिहितानी च।'- अर्थात संसार के समस्त जीव जन्तुओं के बराबर ही आसनों की संख्या बताई गई है, यानी कि 84 लाख योनियों से 84 लाख प्रकार के आसन |              

इस तरह हुआ आसनों का आविष्कार:-

1.पशु-पक्षी आसन : पहले प्रकार के वे आसन जो पशु-पक्षियों के उठने-बैठने, चलने-फिरने या उनकी आकृति के आधार पर बनाए गए हैं जैसे- वृश्चिक, भुंग, मयूर, शलभ, मत्स्य, गरुढ़, सिंह, बक, कुक्कुट, मकर, हंस, काक, मार्जार आदि |

2.वस्तु आसन : दूसरी तरह के आसन जो विशेष वस्तुओं के अंतर्गत आते हैं जैसे- हल, धनुष, चक्र, वज्र, शिला, नौका आदि |

3.प्रकृति आसन : तीसरी तरह के आसन वनस्पति और वृक्षों आदि पर आधारित हैं जैसे- वृक्षासन, पद्मासन, लतासन, ताड़ासन, पर्वतासन आदि |

4.अंग आसन : चौथी तरह के आसन विशेष अंगों को पुष्ट करने वाले तथा अंगों के नाम से सं‍बंधित होते हैं- जैसे शीर्षासन, एकपाद ग्रीवासन, हस्तपादासन, सर्वांगासन, कंधरासन, कटि चक्रासन, पादांगुष्ठासन आदि |

5.योगी आसन : पांचवीं तरह के वे आसन हैं जो किसी योगी या भगवान के नाम पर आधारित हैं- जैसे महावीरासन, ध्रुवासन, मत्स्येंद्रासन, अर्धमत्स्येंद्रासन, हनुमानासन, भैरवासन आदि |

6.अन्य आसन : इसके अलावा कुछ आसन ऐसे हैं- जैसे चंद्रासन, सूर्यनमस्कार, कल्याण आसन आदि | इन्हें अन्य आसनों के अंतर्गत रखा गया है |
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* आसन के मुख्य प्रकार :
1.बैठकर किए जाने वाले आसन,
2.पीठ के बाल लेटकर किए जाने वाले आसन,
3.पेट के बाल लेटकर किए जाने वाले आसन और
 4.खड़े होकर किए जाने वाले आसन |

उक्त चार प्रकार के आसनों में से कुछ आसन ऐसे हैं जिन्हें बैठकर, लेटकर और खड़े रहकर तीनों ही तरीके से किया जाता है | इनमें से कुछ आसन ऐसे भी हैं जिन्हें हाथ के पंजों के बल या पैर के घुटनों के बल पर किया जाता है |

1.बैठकर : पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, मत्स्यासन, वक्रासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, गोमुखासन, पश्चिमोत्तनासन, ब्राह्म मुद्रा, उष्ट्रासन, योगमुद्रा, उत्थीत पद्म आसन, पाद प्रसारन आसन, द्विहस्त उत्थीत आसन, बकासन, कुर्म आसन, पाद ग्रीवा पश्चिमोत्तनासन, बध्दपद्मासन, सिंहासन, ध्रुवासन, जानुशिरासन, आकर्णधनुष्टंकारासन, बालासन, गोरक्षासन, पशुविश्रामासन, ब्रह्मचर्यासन, उल्लुक आसन, कुक्कुटासन, उत्तान कुक्कुटासन, चातक आसन, पर्वतासन, काक आसन, वातायनासन, पृष्ठ व्यायाम आसन-1, भैरवआसन, भरद्वाजआसन, बुद्धपद्मासन, कूर्मासन, भूनमनासन, शशकासन, गर्भासन, मंडूकासन, सुप्त गर्भासन, योगमुद्रासन आदि |

2.पीठ के बल लेटकर : अर्धहलासन, हलासन, सर्वांगासन, विपरीतकर्णी आसन, पवनमुक्तासन, नौकासन, दीर्घ नौकासन, शवासन, पूर्ण सुप्त वज्रासन, सेतुबंध आसन, तोलांगुलासन, प्राणमुक्त आसन, कर्ण पीड़ासन, उत्तानपादासन, चक्रासन, कंधरासन, स्कन्धपादासन, मर्कटासन, ग्रीवासन, एकपादग्रीवासन, द्विपादग्रीवासन, कटी व्यायाम आसन, पृष्ठ व्यायाम आसन-2 आदि |

3.पेट के बल लेटकर : मकरासन, धनुरासन, भुजंगासन, शलभासन, विपरीत नौकासन, खग आसन, चतुरंग दंडासन, कोनासन आदि |

4.खड़े होकर : ताड़ासन, वृक्षासन, अर्धचंद्रमासन, अर्धचक्रासन, दो भुज कटिचक्रासन, चक्रासन, पाद्पश्चिमोत्तनासन, गरुढ़ासन, चंद्रनमस्कार, चंद्रासन, उर्ध्व उत्थान आसन, पाद संतुलन आसन, मेरुदंड वक्का आसन, अष्टावक्र आसन, बैठक आसन, उत्थान बैठक आसन, अंजनेय आसन, त्रिकोणासन, नटराज आसन, एक पाद विराम आसन, एकपाद आकर्षण आसन, उत्कटासन, उत्तानासन, कटी उत्तानासन, जानु आसन, उत्थान जानु आसन, हस्तपादांगुष्ठासन, पादांगुष्ठासन, ऊर्ध्वताड़ासन, पादांगुष्ठानासास्पर्शासन, कल्याण आसन आदि |

5.अन्य : शीर्षासन, मयुरासन, सूर्य नमस्कार, वृश्चिकासन, चंद्र नमस्कार, लोलासन, अधोमुखश्वानासन, मोक्ष आसन, अदवासन, अग्नीस्तंभासन, अनंतासन, अंजनेयासन, योगनिद्रा, मार्जारासन, अनुवित्तासन, अश्व संचालन आसन, भुजपीड़ासन, बिदालासन, बंधासन, चक्र बंधासन, चक्र वज्रासन, चकोरआसन, द्रधासन, द्विपाद परिवर्त्ता कोंडियासन उपधानासन, द्विचक्रिकासन, पादवृत्तासन, पॄष्ठतानासन, प्रसृतहस्त शंखासन, पक्ष्यासन आदि |

* आसन करने के पूर्व : सूक्ष्म व्यायाम (अंग संचालन) के बाद ही योग के आसनों को किया जाता है | योग प्रारम्भ करने के पूर्व अंग-संचालन करना आवश्यक है | इससे अंगों की जकड़न समाप्त होती है तथा आसनों के लिए शरीर तैयार होता है |

* आसनों को सीखना प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ आवश्यक सावधानियों पर ध्‍यान देना जरूरी है | आसन प्रभावकारी तथा लाभदायक तभी हो सकते हैं, जबकि उसको उचित रीति से किया जाए | आसनों को किसी योग्य योग चिकित्सक की देख-रेख में करें तो ज्यादा अच्छा होगा |

(यह प्रयास श्रीगुरुचरणों में समर्पित, जो स्वयं इसका आधार हैं)

अभिनव वशिष्ठ.
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Saturday 2 June 2012

*** योगमार्ग में ऐसे जाना जा सकता है पूर्वजन्म को... ***



         हमारा संपूर्ण जीवन स्मृति-विस्मृति के चक्र में फंसा रहता है। उम्र के साथ स्मृति का घटना शुरू होता है, जोकि एक प्राकृति प्रक्रिया है, अगले जन्म की तैयारी के लिए। यदि मोह-माया या राग-द्वेष ज्यादा है तो समझों स्मृतियां भी मजबूत हो सकती है। व्यक्ति स्मृति मुक्त होता है तभी प्रकृति उसे दूसरा गर्भ उपलब्ध कराती है। लेकिन पिछले जन्म की सभी स्मृतियां बीज रूप में कारण शरीर के चित्त में संग्रहित रहती है। विस्मृति या भूलना इसलिए जरूरी होता है कि यह जीवन के अनेक क्लेशों से मुक्त का उपाय है।

        योग में अ‍ष्टसिद्धि के अलावा अन्य 40 प्रकार की सिद्धियों का वर्णन मिलता है। उनमें से ही एक है पूर्वजन्म ज्ञान सिद्धि योग। इस योग की साधना करने से व्यक्ति को अपने अगले पिछले सारे जन्मों का ज्ञान होने लगता है। यह साधना कठिन जरूर है, लेकिन योगाभ्यासी के लिए सरल है।

* कैसे जाने पूर्व जन्म को : योग कहता है कि ‍सर्व प्रथम चित्त को स्थिर करना आवश्यक है तभी इस चित्त में बीज रूप में संग्रहित पिछले जन्मों का ज्ञान हो सकेगा। चित्त में स्थित संस्कारों पर संयम करने से ही पूर्वन्म का ज्ञान होता है। चित्त को स्थिर करने के लिए सतत ध्यान क्रिया करना जरूरी है।

* जाति स्मरण का प्रयोग : जब चित्त स्थिर हो जाए अर्थात मन भटकना छोड़कर एकाग्र होकर श्वासों में ही स्थिर रहने लगे, तब जाति स्मरण का प्रयोग करना चाहिए। जाति स्मरण के प्रयोग के लिए ध्यान को जारी रखते हुए आप जब भी बिस्तर पर सोने जाएं तब आंखे बंद करके उल्टे क्रम में अपनी दिनचर्या के घटनाक्रम को याद करें। जैसे सोने से पूर्व आप क्या कर रहे थे, फिर उससे पूर्व क्या कर रहे थे तब इस तरह की स्मृतियों को सुबह उठने तक ले जाएं।

         दिनचर्या का क्रम सतत जारी रखते हुए 'मेमोरी रिवर्स' को बढ़ाते जाए। ध्यान के साथ इस जाति स्मरण का अभ्यास जारी रखने से कुछ माह बाद जहां मोमोरी पॉवर बढ़ेगा, वहीं नए-नए अनुभवों के साथ पिछले जन्म को जानने का द्वार भी खुलने लगेगा। जैन धर्म में जाति स्मरण के ज्ञान पर विस्तार से उल्लेख मिलता है।

* क्यों जरूरी ध्यान : ध्यान के अभ्यास में जो पहली क्रिया सम्पन्न होती है वह भूलने की, कचरा स्मृतियों को खाली करने की होती है। जब तक मस्तिष्क कचरा ज्ञान, तर्क और स्मृतियों से खाली नहीं होगा, नीचे दबी हुई मूल प्रज्ञा जाग्रत नहीं होगी। इस प्रज्ञा के जाग्रत होने पर ही जाति स्मरण ज्ञान (पूर्व जन्मों का) होता है। तभी पूर्व जन्मों की स्मृतियां उभरती हैं।

* सावधानी : सुबह और शाम का 15 से 40 मिनट का विपश्यना ध्यान करना जरूरी है। मन और मस्तिष्क में किसी भी प्रकार का विकार हो तो जाति स्मरण का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह प्रयोग किसी योग शिक्षक या गुरु से अच्‍छे से सिखकर ही करना चाहिए। सिद्धियों के अनुभव किसी आम जन के समक्ष बखान नहीं करना चाहिए। योग की किसी भी प्रकार की साधना के दौरान आहार संयम जरूरी रहता है।

(यह प्रयास श्रीगुरु चरणों में समर्पित, जो स्वयं इसका आधार हैं)

अभिनव वशिष्ठ.

Friday 1 June 2012

घर के मंदिर की ऊर्जा कैसे बढायें ?


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          भगवान की भक्ति के लिए सभी के घरों में देवस्थान या मंदिर अवश्य ही होते हैं लेकिन अधिकांश लोग इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि घर में मंदिर की स्थिति से हमारे जीवन पर कितना गहरा प्रभाव पडता है | घर में मंदिर की जैसी स्थिति होती है, वहां रहने वाले सदस्यों का जीवन भी वैसा ही होता है | जिन लोगों के घर में मंदिर का आकार दोष पूर्ण होता है, उन्हें कई प्रकार के कष्टों के साथ मानसिक अशांति एवं धन की कमी का सामना करना पड़ता है। मंदिर से अच्छे और शुभ फल प्राप्त करना हो तो मंदिर का आकार पिरामिड जैसा होना चाहिए | प्राचीन काल से ही मंदिरों का शिखर पिरामिड के आकार का ही बनाया जाता है और इससे कई प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं |

          मंदिर का शिखर पिरामिड के आकार होना बहुत शुभ माना जाता है | इसी वजह से बड़े-बड़े मंदिरों के शिखर भी पिरामिड के आकार के ही होते हैं | घर में पिरामिड के आकार का शिखर वाला मंदिर होने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ जाता है जिसके प्रभाव से परिवार के सभी सदस्यों की चिंताएं दूर हो जाती हैं, मन की सारी अंशाति, आत्मिक शांति में बदल जाती है | पिरामिड की बनावट ऐसी होती है कि यह वातावरण से सकारात्मक ऊर्जा को ग्रहण करता है | जहां पिरामिड होता है वहां नकारात्मक ऊर्जा यानि बुरी शक्तियां अपना प्रभाव नहीं दिखा पाती |

         वास्तु के अनुसार पिरामिड का शाब्दिक अर्थ है "अग्नि शिखा" | अग्नि शिखा का अर्थ है कि एक ऐसी अदृश्य ऊर्जा जो आग के समान होती है | यह शक्ति पिरामिड के प्रभाव में घर में रहने वाले लोगों को मिलती है | पिरामिड प्रकृति से ऊर्जा एकत्रित करता है | पिरामिड की छोटी-छोटी प्रतिकृतियां अंदर से खाली होती हैं, जो कि विद्युत चुंबकीय वर्ग आदि की ऊर्जा निर्मित करती है। इसी वजह से मंदिरों के शिखर पिरामिड की तरह बनाए जाते हैं, जिससे वहां आने वाले व्यक्तियों को ऊर्जा मिलती रहे | यदि किसी व्यक्ति के घर में पिरामिड के आकार का मंदिर रखना संभव न हो तो वास्तु के अनुसार बताए गए पिरामिड को घर में रख सकते हैं | यह भी काफी सकारात्मक परिणाम देता है |

          ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भी घर के मंदिर का शिखर पिरामिड जैसा बनाने से घर के वास्तु दोष और कई प्रकार के ग्रह दोष भी स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं | ग्रह दोष समाप्त होने पर परिवार के सदस्यों को स्वतः अपने जीवन में सकारात्मक परिणाम दिखाई देने लगते हैं, ऐसा अनुभव होता है कि दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल गया हो | ऐसे मंदिर के समक्ष प्रार्थना करने पर हमारी इच्छाएं जल्द ही पूर्ण हो जाती हैं | ऐसे मंदिर के समक्ष मंत्रजप, स्तोत्रपाठ, साधनादि का भी विशेष प्रभाव देखने में आता है |


अभिनव वशिष्ठ.

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