Saturday, 9 June 2012

स्वयं का परिष्कार


               जीवन में जितनी भी समस्याएं हैं, उनके मूल में हमारे अपने गलत विचार और बुरे कर्म होते हैं। गलत कामों से निकलने के लिए हमें अपना परिष्कार करना पडेगा। इसी को प्रायश्चित कहते हैं..
पाप कर्म (बुरे काम) इसलिए बढते रहते हैं, क्योंकि करने वाला उनसे होने वाली हानियों पर ध्यान नहीं देता। वह उन्हें अन्य लोगों द्वारा भी अपनाई जाने वाली सामान्य प्रक्रिया मान लेता है और हल्के मन से करता चला जाता है। बाद में यह अभ्यास बन जाता है। धन और अधिकार जैसे लाभ मिलने से यह आकर्षण और भी बढ जाता है। यह आदत स्वभाव का अंग बन जाती है, जो समझाने-बुझाने से भी नहीं छूटती।
इस कुमार्ग से विरत होने का एक ही मार्ग है कि चलने वाले को उस मार्ग की हानियां दिखाई दें। उसे पता हो कि वह अपना और दूसरों का कितना अहित कर चुका है और आगे न जाने कितनी हानि हो सकती है। यह पता चलने के बाद ही हम अपना परिष्कार कर पाएंगे।
             
               बुरे कामों, गलत प्रवृत्तियों और दुर्भावनाओं से दूसरों का अहित और अपना हित सधने की बात कही जाती है, पर वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। कुमार्ग की कंटीली राह पर चलने से अपने ही पैर कांटों से बिंधते हैं। झाडियों को भी हानि होती है। लेकिन घाटे में तो अपने को ही रहना पडा। मस्तिष्क विकृत होने से प्रगति के रचनात्मक कार्र्यो में लग सकने वाली शक्ति नष्ट हो जाती है। यह बहुमूल्य यंत्र (शरीर) विकृत हो जाता है। शारीरिक-मानसिक रोगों की बाढ आ जाती है। अत: बुद्धिमत्ता इसी में है कि अच्छी प्रवृत्ति को अपनाया जाए और अंत:करण को सद्भावनाओं से भरा-पूरा रखा जाए। इस परिष्कार की उपयोगिता इसी दृष्टि से है कि अंत:करण में अनाचार विरोधी प्रतिक्रिया इतने उग्र रूप में उभरे कि भविष्य में उस प्रकार के अनाचरण की गुंजाइश ही न रहे।
अनैतिक दुराव के कारण मन की भीतरी परतों में विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक ग्रंथियां बनती हैं। उनके कारण शारीरिक-मानसिक रोग उठ खडे होते हैं। यह प्रकृति द्वारा बनाई स्वसंचालित दंड व्यवस्था है। इसमें अपना तन-मन न्यायाधीश बनकर अनाचार के दुष्परिणाम प्रस्तुत करता रहता है। शरीर में विष का प्रवेश हो जाए, तो उसे निकाल बाहर करना ही प्राण रक्षा का एकमात्र उपाय है। ठीक उसी प्रकार अनैतिक दुराव की ग्रंथियों को निकाल बाहर करने से ही वह मन:स्थिति प्राप्त होती है, जो सुविकसित जीवन-क्रम बनाने के लिए आवश्यक होती है। इसलिए अनैतिक कृत्यों को किसी के सामने स्वीकारना आवश्यक है।
     
               एक और तरीका है-अपने ऊपर ऐसे दबाव डालना, जिनकी स्मृति देर तक बनी रहे। बच्चे को कभी अधिक गडबडी करने पर अभिभावक हलकी-सी चपत जड देते हैं या दूसरे प्रकार से धमका देते हैं, इससे बच्चे पर सामान्य समझाने-बुझाने की अपेक्षा अधिक असर पडता है। यह थोडा कष्टकर होने पर भी परिणाम की दृष्टि से अच्छा होता है। प्रायश्चित रूप में अपने आपको दंड देने की यह पद्धति "तप-तितीक्षा" के नाम से बनाई गई है। अंतिम चरण क्षतिपूर्ति का है, जो सबसे महत्वपूर्ण है। इसमें जो हानि पहुंचाई गई है, उसकी पूर्ति होनी चाहिए। सडक पर गड्ढा खोदकर यदि दूसरों को गिराने का आचरण किया गया है, तो जितना श्रम गड्ढा खोदने में किया है, उतना ही उसे भरने में करना होगा। पाप के बराबर पुण्य करना होगा।

युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्यजी

ஜ۩۞۩ஜ हरि ॐ तत्सत्‌ ஜ۩۞۩ஜ

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