भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को पूर्णिमा का श्राद्ध होने के साथ-साथ 'महालयारम्भ' भी होता है. महालय का अर्थ है विभिन्न लोकों में रह रहे पितृगणों का भूलोक (सरलता में इसे पृथ्वी कह सकते हैं) में एकत्र होना. इस तरह भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर सर्वपितृ अमावस्या तक पितृगण सूक्ष्म रुप से भूलोक में ही वास करते हैं. इस पितृपक्ष के समय में पितृगण अपने वंशजों के द्वार पर जाकर, उनसे पितृयज्ञ, श्राद्ध व तर्पणादि की आशा से प्रतीक्षा करते हैं. जब कोई वंशज अपने पूर्वजों के निमित्त ये पवित्र कर्म करता है तो पितरों को अपनी स्थिति से उर्ध्व गति प्राप्त होती है व साथ ही साथ वंशज, पितृऋण से उऋण होता चला जाता है और बदले पितृगण भी अपने वंशजों को संतति, प्रगति व सुख-समृद्धि के वर प्रदान करते हैं. यहाँ यह बात ध्यानपूर्वक समझनी चाहिए कि पितृगण स्वकीय कर्मों के फलस्वरूप किसी भी योनि या अवस्था में हो, वे सदैव अपने वंशज से पितृकर्मों की आशा करते हैं क्योंकि जिस प्रकार हम अपने पूर्वजों के कर्मों के शुभाशुभ फलों से जुडे हैं उसी तरह हमारे पितृ भी हमारे शुभाशुभ कर्मों से जुडे रहते हैं.
यदि ऐसा ना हो तो ऐसी परिस्थितियों में उस व्यक्ति के पितृगण रूष्ट होकर चले जाते हैं और पितृऋण, जिसे चुकाना हम सभी का कर्त्तव्य है, पितृदोष में बदल जाता है और उस परिवार की आने वाली पीढियों की जन्मकुंडलियों में पितृदोष के रुप में प्रकट होता है. कभी-कभी तो ऐसे अतृप्त पितृगण, प्रेतयोनि में चले जाते हैं और इसके बाद तो जैसे उस परिवार पर कष्टों का पहाड ही टूट पडता है. इसलिए प्रत्येक मनुष्य को पितृकर्म को श्रद्धपूर्वक अवश्य ही करना चाहिए.
अगले लेख में पढें, पितृदोष निवारण के कुछ सरल उपाय...
!! हरिॐ तत्सत् !!
''वशिष्ठ''
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