पितृदोष सनातन धर्म की सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकल्पनाओं में से एक है. वर्तमान समय में पितृदोष के बारे में बहुत-सी भ्रांतियां आमजन में फैली हुई हैं जिसका कारण है कि पितृदोष के बारे में बहुत से ज्योतिषियों और पंडितों का यह मत है कि पितृदोष पूर्वजों का श्राप होता है, जिसके कारण इससे पीड़ित व्यक्ति जीवन भर तरह-तरह की समस्याओं और परेशानियों, विशेषकर वंशवृद्धि न होना व गृह क्लेश आदि से जूझता रहता है तथा बहुत प्रयास करने पर भी उसे जीवन में सफलता नहीं मिलती और इसके निवारण के लिए पीड़ित व्यक्ति को पूर्वजों की पूजा करवाने के लिए कहा जाता है, जिससे उसके पितृ(पितर) उस पर प्रसन्न हो जाएं तथा उसकी परेशानियों को कम कर दें, जबकि वास्तविकता में यह सारी की सारी धारणा गलत है क्योंकि पितृदोष से पीड़ित व्यक्ति के पितृ उसे श्राप नहीं देते बल्कि ऐसे व्यक्ति के पितृ तो स्वयं ही शापित होते हैं, जिसका कारण उनके द्वारा किए गए बुरे कर्म होते हैं और जिनका भुगतान उनके वंश में पैदा होने वाले वंशजों को भी करना पड़ता है. जिस तरह संतान अपने पूर्वजों के गुण-दोष धारण करती है, अपने वंश के खून में चलने वाली अच्छाईयां और बीमारियां धारण करती है, अपने बाप-दादाओं से मिली संपत्ति तथा ऋण धारण करती है, पूर्वजों का यश और अपयश धारण करती है उसी तरह से अपने पूर्वजों के द्वारा किए गए अच्छे एवम् बुरे कर्मों के फलों को भी धारण करना पड़ता है.
कुछ ज्योतिषी तथा पंडित पितृदोष का कारण पितरों का श्राद्ध ठीक से न होना और उससे पितरों के कुपित होने को बताते हैं, जबकि यह संभव ही नहीं है क्योंकि किसी भी व्यक्ति की कुंडली के योग और दोष उस व्यक्ति के जन्म के समय ही निश्चित् हो जाते हैं, तो इसके बाद कोई भी व्यक्ति अपने जीवन काल में अच्छे-बुरे जो भी कर्म करता है, उनके फलस्वरूप पैदा होने वाले योग-दोष उसकी इस जन्म की कुंडली में आ ही नहीं सकते बल्कि ऐसे योग-दोष उसकी अगले जन्मों की कुंडलियों में आते हैं. तो चाहे कोई व्यक्ति अपने पूर्वजों का श्राद्ध-कर्म ठीक तरह से करे या न करे, उनसे पैदा होने वाले योग-दोष उस व्यक्ति की इस जन्म की कुंडली में कैसे आ सकते हैं? इसलिए जो पितृदोष किसी भी व्यक्ति की इस जन्म की कुंडली में उपस्थित है उसका उस व्यक्ति के इस जन्म के कर्मों से कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि वह पितृदोष तो उस व्यक्ति को इस जन्म में अच्छे-बुरे कर्म करने की स्वतंत्रता मिलने से पहले ही निर्धारित हो गया था.
पितृदोष के मूल सिद्धांत को एक पुराणोक्त कथा से आसानी से समझा जा सकता है. यह कथा पतितपावनी गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के साथ जुड़ी है. प्राचीन काल में रघुकुल में सगर नाम के राजा हुए, इनके पुत्रों ने भ्रमवश तपस्यारत कपिल मुनि पर आक्रमण कर दिया और कपिल मुनि के नेत्रों से निकली क्रोधाग्नि ने इन सब को भस्म कर दिया. राजा सगर को जब इस बात का पता चला तो वह समझ गए कि कपिल मुनि जैसे महात्मा पर आक्रमण करने के पाप कर्म का फल उनके वंश की आने वाली कई पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा. इसलिए उन्होंने तुरंत अपने पौत्र अंशुमन को मुनि के पास जाकर इस पाप कर्म का प्रायश्चित पूछने के लिए कहा जिससे उनके वंश से इस पाप कर्म का प्रभाव दूर हो जाए तथा उनके मृतक पुत्रों को भी सद्गति प्राप्त हो. अंशुमन के प्रार्थना करने पर मुनि ने बताया कि इस पाप कर्म का प्रायश्चित करने के लिए उन्हें भगवान ब्रह्माजी को प्रसन्न कर देवनदी गंगा को पृथ्वी पर लाना होगा तथा मृतक राजपुत्रों के अवशेषों को गंगा की पवित्र धारा में प्रवाहित करना होगा, तभी जाकर उनके वंश को इस पाप से मुक्ति मिलेगी. मुनि के कहे अनुसार अंशुमन ने ब्रह्माजी की तपस्या की, किन्तु उनकी जीवन भर की तपस्या से भी ब्रह्माजी प्रसन्न होकर प्रकट नहीं हुए तो उन्होने मरने से पहले यह दायित्व अपने पुत्र दिलीप को सौंप दिया. राजा दिलीप भी जीवन भर ब्रह्माजी की तपस्या करते रहे पर उन्हे भी ब्रह्माजी के दर्शन प्राप्त नहीं हुए तो उन्होने यह दायित्व अपने पुत्र भागीरथ को सौंप दिया. राजा भागीरथ के तप से ब्रह्माजी प्रसन्न होकर प्रकट हुए तथा उन्होने भागीरथ को गंगा को पृथ्वी पर भेजने का वरदान दिया. वरदान देकर जब भगवान ब्रह्माजी जाने लगे तो राजा भागीरथ ने उनसे एक प्रश्न पूछा, “हे परमपिता, मेरे पितामह और पिता ने जीवन भर आपको प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया परंतु आपने उनमें से किसी को भी दर्शन नहीं दिए जबकि मेरी तपस्या तो उनसे कम थी परतु फिर भी आपने मुझे दर्शन और वरदान दिया, हे प्रभु क्या मेरे पूर्वजों की तपस्या में कोई कमी थी जो उनकी तपस्या व्यर्थ गई”. इसके उत्तर में भगवान ब्रह्माजी ने कहा, “राजन, तपस्या कभी भी व्यर्थ नहीं जाती. आपके पूर्वजों की तपस्या तो कपिल मुनि पर आक्रमण करने के पाप कर्म के निवारण में ही चली गई और आपकी तपस्या के फलस्वरूप गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए आवश्यक पुण्य कर्म संचित हुए हैं. यदि आपके पूर्वजों ने तपस्या करके आपके कुल पर चढ़े हुए पाप कर्मों का भुगतान न किया होता तो आज आपको मेरा दर्शन और वरदान प्राप्त नहीं होता”.
इस कथा से स्पष्ट हो जाता है कि राजा सगर के पुत्रों के पाप कर्म से उनके वंश पर जो पितृॠण चढा, उसका भुगतान उनके वंश मे आने वाली पीढ़ियों को करना पड़ा. इस तरह पितृदोष पूर्वजों के श्राप देने से नहीं बल्कि पूर्वजों के स्वयं शापित होने से बनता है और इसके निवारण के लिए पूर्वजों की पूजा नहीं करनी होती है बल्कि पूर्वजों के उद्धार के लिए पितृयज्ञ-तर्पणादि पुण्य कर्म करने होते हैं. जिनके प्रभाव से पितृ अपने पापकर्मों से मुक्त हो सकें.
पितृदोष को समझ लेने के बाद यह भी जान लेना चाहिए कि जन्मकुंडली में उपस्थित किन लक्षणों से पितृदोष का पता चलता है? नव-ग्रहों में सूर्य स्पष्ट रूप से पूर्वजों के प्रतीक हैं, इसलिए किसी कुंडली में सूर्य को बुरे ग्रहों की दृष्टि-युति से पीडित होने पर पितृदोष लगता है. इसके अलावा कुंडली का नवम भाव पूर्वजों से संबंधित होता है, इसलिए यदि कुंडली का नवम भाव या नवमेश बुरे ग्रहों से पीडित हों तो यह भी पितृदोष कहलाता है. इसके अलावा केन्द्र-त्रिकोण व राहु से जुडी कुछ अन्य स्थितियाँ भी पितृदोष बताती हैं. पितृदोष प्रत्येक कुंडली में अलग-अलग तरह के प्रभाव दिखाता है जिनका पूरा ज्ञान कुंडली का विस्तारपूर्वक अध्ययन करने के बाद ही होता है. पितृदोष के निवारण के लिए सबसे पहले कुंडली में उन ग्रहों की पहचान की जाती है जो कुंडली में पितृदोष बना रहे हैं और उसके पश्चात उन ग्रहों के लिए उपाय किए जाते हैं जिनसे पितृदोष के बुरे प्रभावों को कम किया जा सके.
[आगामी लेखों में पितृदोष से संबंधित कुछ अन्य योगों व पितृदोष निवारण के उपायों के साथ-साथ, पितृयज्ञ व तर्पणादि की सार्थकता से जुडी शंकाओं पर भी चर्चा होगी]
अभिनव शर्मा ''वशिष्ठ''
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