Friday, 21 December 2012

जरूरी है दादा-दादी का साथ



बदलती जीवन शैली और व्यवसायिक परिस्थितियों ने व्यक्ति को अपना घर-परिवार, अपने माता-पिता से दूर जीवन व्यतीत करने के लिए विवश कर दिया है | आय के बेहतर अवसरों की तलाश और आर्थिक स्थिति सशक्त बनाने के लिए व्यक्ति जब अपने अभिभावकों से अलग दूसरे शहरों में रहने लगता है, तो ऐसे में वह वहीं अपना परिवार बसा लेता है, परिणामस्वरूप आधुनिक परिप्रेक्ष्य में एकल परिवारों की संख्या में दिनोंदिन वृद्धि होने लगी है |

भले ही यह एकल परिवार आज के युवाओं की पहली पसंद हों, लेकिन हाल ही में हुए एक शोध ने यह प्रमाणित कर दिया है कि बच्चों के प्रारंभिक विकास के लिए परिवार के बड़े-बुजुर्गों का सांनिध्य अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है | सबसे हैरान करने वाली बात तो यह है कि यह सर्वेक्षण एक ब्रिटिश संस्थान द्वारा कराया गया है, जहां व्यक्तिगत स्वतंत्रता और हितों को अत्यधिक महत्व मिलने के चलते संयुक्त परिवारों का औचित्य न के बराबर है | वह भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि दादा-दादी, बच्चों को केवल लाड़-प्यार ही नहीं करते बल्कि उनके नैतिक और मानसिक विकास को भी बढ़ावा देते हैं |

यद्यपि यह शोध एक विदेशी कंपनी द्वारा कराया गया है, लेकिन यह भारतीय परिदृश्य के संदर्भ में और अधिक प्रासंगिक प्रतीत होता है | आमतौर पर यह देखा जा सकता है कि विदेशों में जहां एक ओर बच्चे अपने अभिभावकों को पर्याप्त महत्व नहीं देते वहीं अभिभावक भी बच्चों के जीवन में हस्तक्षेप नहीं कराते हैं, जो एकल परिवारों की प्रमुखता का कारण बनता है | इसके परिणामस्वरूप आपसी और करीबी संबंध भी बेहद औपचारिक बन जाते हैं | लेकिन भारत में ऐसी परिस्थितियां पाश्चात्य देशों का अत्यधिक अनुसरण करने की ही देन हैं जो वैश्वीकरण और उदारीकरण जैसी नीतियों के भारत में आगमन के बाद पैदा हुई हैं | संयुक्त परिवार का महत्व गौण होने के पीछे सबसे बड़ा उत्तरदायी कारक लोगों में आत्मकेंद्रित होती मानसिकता है जो उन्हें केवल अपने परिवार और अपने तक ही सीमित रखती है | तथाकथित मॉडर्न होते युवा माता-पिता के साथ रहना आउट ऑफ फैशन समझते हैं | अपना अलग घर, अपनी अलग दुनियां बसाना उन्हें बहुत आकर्षक लगता है | इसके अलावा बढ़ती महंगाई भी एक और कारण है जिसकी वजह से घर में ज्यादा सदस्य होना बोझिल लगने लगता है, लेकिन आज की युवा पीढी अपने मौज-शौक में कोई कटौती करने को तैयार नहीं, अल्बत्ता बडे-बुज़ुर्गों की छत्रछाया हो न हो |

भले ही एकल परिवार, आजकल की वैवाहिक दंपत्ति को एक अच्छा विकल्प लगता हों, लेकिन निश्चित तौर पर दादा-दादी से दूरी बच्चों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है | ऐसा नहीं है बुजुर्गों से दूरी बच्चों को असभ्य बनाती है, लेकिन अगर दादा-दादी का साथ हो तो बच्चे और अधिक भावुक और समझदार हो जाते हैं | आजकल के दौर में जब महिलाएं भी घर से बाहर काम करने जाती हैं और बच्चे घर में अकेले होते हैं तो ऐसे में अगर उन्हें दादा-दादी का साथ मिल जाए तो वह खुद को सहज महसूस तो करते ही हैं, इसके अलावा उन्हें अपने परिवार की उपयोगिता भी भली-भांति समझ में आती है |


माँ(दादी) के स्नेह को समर्पित...


!! हरिहरॐ !!
!! प्रेम.शान्ति.आनंद !!

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