Saturday 22 September 2012

दधीचि जयंती - 23.09.2012



प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की अष्टमी को दधीचि जंयती मनाई जाती है. पौराणिक आख्यानों के अनुसार ऋषि दधीचि ने अपनी हड्डियो को दान में देकर देवताओं की रक्षा की थी. इस वर्ष 23 सितंबर 2012 को दधीचि  जयंती मनाई जाएगी.

* ऋषि दधीचि *

भारतीय प्राचीन ऋषि-मुनि परंपरा के महत्वपूर्ण ऋषियों में से एक रहे आत्मत्यागी ऋषि दधीचि, जिन्होंने विश्व कल्याण हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. इसलिए इन महान आत्मत्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है. ऋषि दधीचि के पिता महान ऋषि अथर्वा जी थे और इनकी माता का नाम शान्ति था. ऋषि दधीचि ने अपना संपूर्ण जीवन भगवान शिव की भक्ति में व्यतीत किया. उन्होंने कठोर तप द्वारा अपने शरीर को कठोर बना लिया था. अपनी कठोर तपस्या द्वारा तथा अटूट शिवभक्ति से ही यह सभी के लिए आदरणीय हुए.

एक बार इनके तप ने तीनों लोकों को विचलित कर दिया था. कथा इस प्रकार है एक बार ऋषि दधीचि ने बहुत कठोर तपस्या आरंभ कि उनकी इस तपस्या से सभी लोग भयभीत होने लगे इंद्र का सिंहांसन डोलने लगाँ. इनकी तपस्या के ते़ज से तीनों लोक आलोकित हो गये. इसी प्रकार कोई भी उनकी तपस्या से प्रभावित हुए बिना न रह सके. समस्त देवों के सथ इंद्र भी इस तपस्या से प्रभावित हुए और इन्द्र को लगा कि अपनी कठोर तपस्या के द्वारा दधीचि इन्द्र पद प्राप्त करना चाहते हैं. अत: इंद्र ने ऋषि की तपस्या को भंग करने के लिए अपनी रूपवती अप्सरा को ऋषि दधीचि के समक्ष भेजा. अप्सरा के अथक प्रयत्न के पश्चात भी ऋषि की तपस्या जारी रहती है. असफल अपप्सरा इन्द्र के पास लौट आती हैं, बाद में इंद्र को उनकी शक्ति का भान होता है तो वह ऋषि के समक्ष अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करते हैं.


 वृत्रासुर और दधीचि का अस्थि दान


एक बार वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगते हैं वह अपनी व्यथा ब्रह्माजी को बताते हैं तो ब्रह्माजी उन्हें ऋषि दधीचि के पास जाने की सलाह देते हैं क्योंकि इस संकट के समय़ केवल दधीचि ही उनकी सहायता कर सकते थे. यदि वह अपनी अस्थियो का दान देते तो उनकी अस्थियो से बने शस्त्रों से वृत्रासुर मारा जा सकता है. क्योंकि ऋषि दधीचि की अस्थियों मे तप के कारण ब्रह्मतेज व्याप्त था, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता था क्योंकि वृत्रासुर पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का कोई असर नहीं हो रहा था. तब इंद्र ब्रह्माजी के कहे अनुसार ऋषि दधीचि के पास जाते हैं. इंद्र ऋषि से प्रार्थना करते हुए उनसे उनकी हड्डियाँ दान स्वरुप मांगते हैं. ऋषि दधीचि उन्हें निस्वार्थ रुप से लोकहित के लिये मैं अपना शरीर प्रदान कर देते हैं. इस प्रकार ऋषि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण होता है और जिसके  प्रयोग से इंद्र ने वृत्रासुर का अंत किया. इस प्रकार परोपकारी ऋषि दधीचि के त्याग द्वारा तीनों लोकों की रक्षा होती है और इंद्र को उनका स्थान पुन: प्राप्त होता है.


आत्मत्यागी ऋषि दधिचि को कोटि-कोटि नमन...


                                                                                  अभिनव शर्मा ''वशिष्ठ''

No comments:

Post a Comment