Thursday, 27 September 2012

अनंत चतुर्दशी - 29-09-12



यह व्रत भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को किया जाता है. इस दिन भगवान श्रीविष्णु की कथा होती है. इसमें उदयव्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है. यह दिन अंत न होने वाली सृष्टि के कर्ता ब्रह्म की भक्ति का दिन है. इस दिन वेद-ग्रंथों का पाठ करके भक्ति की स्मृति का डोरा बाँधा जाता है. इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है.

सनातन धर्म के त्योहारों में अनंत भगवान के पूजनदिवस ''अनंत चतुर्दशी'' का विशेष महत्व है. अनंत स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का रूप है. इस व्रत को स्वयं श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को करने को कहा था. एक समय इंद्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) में युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया था. उस यज्ञ में आए दुर्योधन का भ्रमित होकर जल में गिर जाने पर द्रौपदी द्वारा अपमान हुआ था.

उसी का बदला लेने के लिए छल से पांडवों को जुए में हारकर कौरवों ने वन में भेज दिया था. उस अवधि में दु:खी पांडवों के लिए युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से उपाय पूछा था, तब श्रीकृष्णचंद्रजी ने स्वयं अनंत पूजन को युधिष्ठिर से कहा था. तब युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा था- श्रीकृष्णजी, ये अनंत कौन हैं? क्या शेषनाग हैं, क्या तक्षक सर्प है अथवा परमात्मा को कहते हैं?

श्रीकृष्ण कहते हैं अनंत रूप मेरा ही रूप है. सूर्यादि ग्रह और यह आत्मा जो कही जाती हैं, घटी-पल-विपल, दिन-रात, मास, ऋतु, वर्ष, युग- ये सब काल कहे जाते हैं. जो काल कहे जाते हैं वही अनंत कहा जाता है. मैं वही कृष्ण हूँ और पृथ्‍वी का भार उतारने के लिए बार-बार अवतार लेता हूँ. वैकुण्ठ आदि लोक, सूर्य, चंद्र, सर्वव्यापी ईश्वर तथा मध्य-अंत कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव तथा सृष्टि जो नाश करने वाले विश्वरूप इत्यादि रूपों को मैंने अर्जुन के ज्ञान के लिए दिखलाया था.

* पूजन कैसे करें

इस दिन व्रती प्रातः स्नान करके निम्न मंत्र से संकल्प लें-
ममाखिलपापक्षयपूर्वक शुभफलवृद्धये
श्रीमदनंतप्रीतिकामनया अनंतव्रतमहं करिष्ये |
संकल्प के पश्चात अपने पूजन स्थल को स्वच्छ व पुष्पादि सुशोभित करें.
इसके बाद कलश की स्थापना करें.
कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनंत की स्थापना करें.
इसके पास कुमकुम, केसर या हल्दी रंजित चौदह गाँठों वाला 'अनंत' भी रखें.
तदुपरांत कुश के अनंत की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आवाहन तथा ध्यान करें.
फिर गंध, अक्षत, पुष्प, धूप तथा नैवेद्य से पूजन कर निम्न मंत्र से नमस्कार करें-
नमस्ते देव देवेश नमस्ते धरणीधर |
नमस्ते सर्व नागेंद्र नमस्ते पुरुषोत्तम ||

इसके बाद अनंत देव का पुनः ध्यान करके शुद्ध अनंत को अपनी दाहिनी भुजा पर बाँधें.
नवीन अनंत को धारण कर पुराने का त्याग निम्न मंत्र से करें-
न्यूनातिरिक्तानि परिस्फुटानि यानीह कर्माणि मया कृतानि |
सर्वाणि चैतानि मम क्षमस्व प्रयाहि तुष्टः पुनरागमाय ||

पूजन के पश्चात्‌ अनंत भाव को समझते हुए, श्रीमद्भगवद्गीता (11 वाँ अध्याय) में अर्जुन द्वारा की गई स्तुति को श्री अनंत देव की प्रार्थना के रुप में, इन भावों से करें,

त्वमादिदेव: पुरुषः पुराण
स्त्वमस्य विश्वस्य परं विधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं धाम
त्वया ततं विश्वमन्तरूप ||
अर्थ- आप ही ‍आदिदेव और पुराणपुरुष हैं तथा आप ही इस संसार के आश्रय हैं. आप इस ही सबको जाननेवाले, जाननेयोग्य और परमधाम हैं. हे अनंतरूप, आपसे यह सब जगत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण है.

वायुर्यमोऽग्निर्वरूणः शशांकः
प्रजापतिस्त्वं प्रपिताहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
अर्थ- आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, दक्षादि प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्माजी के भी पिता) हैं. आपके लिए हजारों बार नमस्कार है, नमस्कार है. आपके लिए फिर बारंबार नमस्कार है. हे अनंत सामर्थ्य वाले आपके लिए हर तरफ से नमस्कार है, क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किए हुए हैं. उससे आप ही सर्वरूप हैं.

पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् |
न त्वत्समोऽस्यभ्यधिकः कुत्तोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्य‍प्रतिम प्रभाव ||
अर्थ- आप इस चराचर जगत के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अतिपूजनीय हैं. हे अनुपम प्रभाव वाले तीनों लोकों में आपके समान कोई दूसरा नहीं है तो अधिक
तो हो ही कैसे सकता है.

तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं
प्रसादये त्वामहमीशमीड़्यम्‌ |
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः
प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌ ||
अतएव हे प्रभो मैं शरीर से, मन से आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ. आप ईश्वर को प्रसन्न होने के लिए प्रार्थना करता हूँ. पिता जैसे पुत्र के, सखा जैसे सखा के और पति जैसे प्रियतमा पत्नी के अपराध सहन करते हैं. वैसे ही आप भी मेरे अपराध को सहन करने योग्य हैं.

इस प्रकार प्रभु से प्रार्थना करने से, अवश्य प्रभु अनंत देव आपकी मनोकामना पूर्ण करेंगे.


* कथा

अनंत पूजा आदिकाल से चली आ रही है. सतयुग में सुमन्तनाम का ब्राह्मण था. उसने अपनी कन्या शीला (मतांतर से सुशीला) का विवाह विधि-विधानपूर्वक कौडिल्य ऋषि के साथ कर दिया. शीला ने अनंत चतुर्दशी का पूजन कर कौडिन्य ऋषि के चौदह गाँठ वाला धागा (अनंत) बाँधा, परंतु धन से कुछ मत्त से हुए में उन ऋषि कौडिन्य ने धागा आग में जला दिया. परिणामस्वरूप वे पतन को प्राप्त होते चले गए. उन्हें कई कष्ट उठाने पडे.

पूरे ब्रह्मांड में भटकने के बाद भी जब शांति एवं भगवान की शरण नहीं‍ मिली तो मूर्च्छित हो धरती पर गिर गए. होश आने पर प्रभु अनंत देव को हृदय से 'हे अनंत' कहकर बुलाया. स्वयं प्रभु श्रीहरि चार भुजा स्वरूप शंख-चक्र धारण कर आए और आशीर्वाद देकर कौंडिन्य को धन्य कर दिया. ऐसे दयालु हैं ये अनंत प्रभु.

क्योंकि स्वयं प्रभु ने गीता में कहा है- 

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥

संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा. मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर.

अंत में क्षमाप्रार्थना कर विसर्जन करें.


ऐसे अकारणकरूणावरूणालय श्रीअनंत प्रभु हम सभी को अनंत आनंद की ओर प्रेरित करें,


(आगे पितृपक्ष, पितृदोष और पितृशांति पर विशेष लेख होंगे)



                                                                                                        ''वशिष्ठ''

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