Wednesday, 19 September 2012

क्या है ऋषि पञ्चमी और इसका व्रत विधान



               भाद्रपद के शुक्लपक्ष की पंचमी को ऋषि पञ्चमी व्रत किया जाता है. प्रथमत: यह सभी वर्णों के पुरुषों के लिए प्रतिपादित था, किन्तु अब यह अधिकांश में नारियों द्वारा किया जाता है. ब्रह्माण्ड पुराण में इसका विशद विवरण उपस्थित है.
इसमें व्यक्ति को नदी आदि में स्नान करने तथा आह्लिक कृत्य करने के उपरान्त अग्निहोत्रशाला में जाना चाहिए, सातों ऋषियों की प्रतिमाओं को पंचामृत से अभिषेक कराना चाहिए, उन पर चन्दन लेप, पुष्पों, सुगन्धित पदार्थों, धूप, दीप, श्वेत वस्त्रों, यज्ञोपवीतों, अधिक मात्रा में नैवेद्य से पूजा करनी चाहिए और मन्त्रों के साथ अर्ध्य चढ़ाना चाहिए.

अर्ध्यमन्त्र:

कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोय गौतम:।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषय: स्मृता:॥
गृह्णन्त्वर्ध्य मया दत्तं तुष्टा भवत मे सदा॥

* वराहमिहिर की बृहत्संहिता (13।5-6) में सप्तर्षियों के नाम आये हैं (जो पूर्व से आरम्भ किये गये हैं) यथा मरीचि, वशिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, कतु ;13।6 में आया है कि साध्वी अरून्धती वशिष्ठ के पास हैं. इस व्रत में केवल शाकों का प्रयोग होता है और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है. इसके करने से सभी पापों एवं तीनों प्रकार के दु:खों से छुटकारा मिलता है तथा सौभाग्य की वृद्धि होती है. जब नारी इसे सम्पादित करती है तो उसे आनन्द, शरीर-सौन्दर्य, पुत्रों एवं पौत्रों की प्राप्ति होती है.

पश्चात्कालीन निबन्ध व्रतार्क, व्रतराज आदि ने भविष्योत्तर पुराण से उद्धृत कर बहुत-सी बातें लिखी हैं, जहाँ कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को सुनायी गयी एक कथा भी है. जब इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र वृत्र का हनन किया तो उन्हें ब्रह्महत्या का अपराध लगा. उस पाप को चार स्थानों में बाँटा गया, यथा अग्नि (धूम से मिश्रित प्रथम ज्वाला), नदियों (वर्षाकाल के पंकिल जल), पर्वतों (जहाँ गोंद वाले वृक्ष उगते हैं) में तथा स्त्रियों (रजस्वला) में.(भागवतकार से थोड़ा भेद है) अत: मासिक धर्म के समय लगे पाप से छुटकारा पाने के लिए यह व्रत स्त्रियों द्वारा किया जाना चाहिए.

इसका संकल्प यों है-

अहं ज्ञानतोऽज्ञानतो वा रजस्वलावस्यायां कृतसंपर्कजनितदोषपरिहारार्थमृषिपञ्चमीव्रतं करिष्ये |

ऐसा संकल्प करके अरून्धती के साथ सप्तर्षियों की पूजा करनी चाहिए||

व्रतराज के मत से इस व्रत में केवल शाकों या नीवारों या साँवा (श्यामाक) या कन्द-मूलों या फलों का सेवन करना चाहिए तथा हल से उत्पन्न किया हुआ अन्न नहीं खाना चाहिए. आजकल जब पुरुष भी इस व्रत को करते हैं तो वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है, यथा कश्यप ऋषि, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं वसिष्ठ के लिए ऋग्वेद से  मन्त्र  लिए जाते हैं.

अरून्धती के लिए भी मन्त्र है—
अत्रेर्यथानसूया स्याद् वसिष्ठस्याप्यरून्धती | कौशिकस्य यथा सती तथा त्वमपि भर्तरि ||

यह अरून्धती के आवाहन के लिए है. यह व्रत सात वर्षों का होता है. सात घड़े होते हैं और सात ब्राह्मण निमन्त्रित रहते हैं, जिन्हें अन्त में ऋषियों की सातों प्रतिमाएँ (सोने या चाँदी की) दान में दे दी जाती हैं. यदि सभी प्रतिमाएँ एक ही कलश में रखी गयी हों तो वह कलश एक ब्राह्मण को तथा अन्यों को कलशों के साथ वस्त्र एवं दक्षिणा दी जाती है.

विशेष:- यदि पंचमी तिथि चतुर्थी एवं षष्टी से संयुक्त हो तो ऋषि पंचमी व्रत चतुर्थी से संयुक्त पंचमी को किया जाता है न कि षष्ठीयुक्त पंचमी को। किन्तु इस विषय में मतभेद है. सम्भवत: आरम्भ में ऋषिपंचमी व्रत सभी पापों की मुक्ति के लिए सभी लोगों के लिए व्यवस्थित था, किन्तु आगे चलकर यह केवल नारियों से ही सम्बन्धित रह गया. किन्तु सौराष्ट्र में इसका सम्पादन नहीं होता.

ऋषि पञ्चमी कथाएं:-


प्रथम
एक समय विदर्भ देश में उत्तक नाम का ब्राह्मण अपनी पतिव्रता पत्नी के साथ निवास करता था. उसके परिवार में एक पुत्र व एक पुत्री थी. पुत्र का नाम 'सुविभूषण' था जो बहुत बुद्धि वाला था. ब्राह्मण ने अपनी पुत्री का विवाह अच्छे ब्राह्मण के साथ कर दिया था. भगवान की व्यवस्था से ऐसा विधान बना कि पुत्री विधवा हो गयी. अपनी धर्म के साथ अपने पिता के घर ही रहने लगी. अपनी कन्या को दु:खी देखकर उत्तक अपने पुत्र को घर पर छोड़कर अपनी स्त्री व पुत्री को लेकर गंगा किनारे आश्रम बनाकर रहने लगे. कन्या अपने माता-पिता की सेवा करने लगी. एक दिन काम करके थक कर कन्या एक पत्थर की शिला पर आराम करने लेट गई. आधी रात में उसके शरीर में कीड़े उत्पन्न हो गये. अपनी कन्या के शरीर पर कीड़े देखकर ब्राह्मणी बहुत विलाप करके रोती रही और बेहोश हो गयी. होश आने पर कन्या को उठाकर उत्तक के पास ले गई और कहने लगी कि इसकी हालत ऐसी क्यों हो गई? ब्राह्मणी की बात सुनकर उत्तक अपने नेत्रों को बन्द करके ध्यान लगाकर कहने लगे कि हमारी कन्या पूर्व जन्म में ब्राह्मणी थी. इसने एक बार रजस्वला होने पर घर के सब बर्तन आदि छू लिये थे. बस इसी पाप के कारण इसके शरीर पर कीड़े पड़ गये हैं. शास्त्रों के अनुसार रजस्वला स्त्री पहले दिन चान्डालनी दूसरे दिन ब्रह्महत्यारिणी तीसरे दिन पवित्र धोबिन के समान होती है और चौथे दिन वह स्नान करने के पश्चात शुद्ध हो जाती है. शुद्ध होने के बाद भी इसने अपनी सखियों के साथ ॠषि पंचमी का व्रत देखकर रूचि नहीं ली. व्रत के दर्शन मात्र से ही इसे ब्राह्मण कुल प्राप्त हुआ. लेकिन इसके तिरस्कार करने से इसके शरीर में कीड़े पड़ गये. ब्राह्मणी ने कहा ऐसे आश्चर्य व्रत को आप कृपा करके मुझे अवश्य बतायें. यह कथा श्री कृष्ण ने युधिष्ठर को सुनाई थी, जो स्त्री रजस्वला होकर भी घर के कामों को करती है वह अवश्य ही नरक में जाती है. पूर्व जन्म में वृत्रासुर का वध करने के कारण इन्द्र को ब्रह्म हत्या का महान पाप लगा था. उस समय ब्रह्माजी ने उस पर कृपा करके उस पाप को चार स्थानों में बांट दिया था. पहला अग्नि की ज्वाला में, दूसरा नदियों की बरसाती जल में, तीसरा पर्वतों में, चौथा स्त्री के रज में विभाजित करके, उस पाप को शुद्धि के लिए ही हर स्त्री को ॠषि पंचमी का व्रत करना चाहिए.


द्वितीय कथा
सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुये थे. वह ॠषियों के समान थे. उन्हीं के राज में ब्राह्मण कृषक सुमित्र था. ब्राह्मण की स्त्री जयश्री अत्यन्त पतिव्रता थी. एक समय वर्षा ॠतु में जब उसकी स्त्री खेती के कामों में लगी हुई थी तो वह रजस्वला हो गई. उसको रजस्वला होने का पता लग गया फिर भी वह घर के कामों में लगी रही. कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी आयु भोग कर मृत्यु को प्राप्त हुए. जयश्री तो कुतिया बनीं और सुमित्र को रजस्वला स्त्री के सम्पर्क में आने के कारण बैल की योनी मिली. क्योंकि ॠतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था. इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का समस्त विवरण याद रहा. वे दोनों कुतिया और बैल के रूप में उसी नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहाँ रहने लगे. धर्मात्मा सुचित्र अपने अतिथियों का पूर्ण सत्कार करता था. अपने पिता के श्राद्ध के दिन उसने अपने घर ब्राह्मणों को जिमाने के लिये नाना प्रकार के भोजन बनवाये. जब उसकी स्त्री किसी काम के लिए रसोई से बाहर गई हुई थी तो एक सर्प ने रसोई की खीर के बर्तन में विष वमन कर दिया. कुतिया के रूप में सुचित्र की माँ कुछ दूर से सब देख रही थी. पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्महत्या के पाप से बचाने के लिए उस बर्तन में मुँह डाल दिया. सुचित्र की पत्नी चन्द्रवती से कुतिया का यह कृत्य देखा न गया और उसने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुतिया को मारी. बेचारी कुतिया मार खाकर इधर-उधर भागने लगी. चौके में जो झूठन आदि बची रहती थी, वह सब सुचित्र की बहू उस कुतिया को डाल देती थी, लेकिन क्रोध के कारण उसने वह भी बाहर फिकवा दिया. सब खाने का सामान फिकवा कर बर्तन साफ करा के दोबारा खाना बनाकर ब्राह्मणों को खिलाया. रात्रि के समय भूख से व्याकुल होकर वह कुतिया बैल के रूप में रह रहे अपने पूर्व पति के पास आकर बोली, हे स्वामी! आज तो भूख से मरी जा रही हूँ. वैसे तो मेरा पुत्र मुझे रोज़ खाने को देता था. लेकिन आज मुझे कुछ नहीं मिला. साँप के विष वाले खीर के बर्तन को अनेक ब्रह्महत्या के भय से छूकर उनके न खाने योग्य कर दिया था. इसी कारण उसकी बहू ने मुझे मारा और खाने को कुछ भी नहीं दिया. तब वह बैल बोला, हे भद्रे! तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनि में आ पड़ा हूँ और आज बोझा ढ़ोते-ढ़ोते मेरी कमर टूट गई है. आज मैं भी खेत में दिनभर हल में जुता रहा. मेरे पुत्र ने आज मुझे भी भोजन नहीं दिया और मुझे मारा भी बहुत. मुझे इस प्रकार कष्ट देकर उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया. अपने माता-पिता की इन बातों को सुचित्र सुन रहा था. उसने उसी समय दोनों को भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चला गया. वन में जाकर ॠषियों से पूछा कि मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीची योनियों को प्राप्त हुए हैं और अब किस प्रकार से इनको छुटकारा मिल सकता है? तब सर्वतमा ॠषि बोले तुम इनकी मुक्ति के लिए पत्नी सहित ॠषि पंचमी का व्रत धारण करो तथा उसका फल अपने माता-पिता को दो. भादों महीने की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्यान्ह में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नये रेशमी कपड़े पहनकर अरूधन्ती सहित सप्तॠषियों का पूजन करना. इतना सुनकर सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नी सहित विधि विधान से पूजन व्रत किया. उसके पुण्य से माता-पिता दोनों पशु योनियों से छूट गये. इसलिये जो स्त्री श्रद्धापूर्वक ॠषि पंचमी का व्रत करती है वह समस्त सांसारिक सुखों को भोग कर वैकुण्ठ जाती है.


ऋषि पंचमी पर समस्त ऋषिगणों को कोटि-कोटि नमन...


आप सभी को शुभकामनाएं...


                                                                                                                   ''वशिष्ठ''

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