Sunday, 30 September 2012

श्राद्धपक्ष को कनागत (कन्यार्कगत) क्यों कहते हैं ?



भारतीय धर्मग्रंथों में मनुष्य को तीन प्रकार के ऋणों- देवऋण, ऋषिऋण व पितृऋण से मुक्त होना आवश्यक बताया गया है. इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है. पितृऋण यानी हमारे उन जन्मदाता एवं पालकों का ऋण, जिन्होंने हमारे इस शरीर का लालन-पालन किया, बडा और योग्य बनाया. हमारी आयु, आरोग्य एवं सुख-सौभाग्य आदि की अभिवृद्धि के लिए सदैव कामना की, यथासंभव प्रयास किए, उनके ऋण से मुक्त हुए बिना हमारा जीवन व्यर्थ ही होगा. इसलिए उनके जीवन काल में उनकी सेवा-सुश्रुषा द्वारा और मरणोपरांत श्राद्धकर्म द्वारा पितृऋण से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है. श्राद्ध शब्द की व्युत्पत्ति से ही यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि इस कार्य को श्रद्धा के साथ करना चाहिए (श्रद्धया दीयतेयस्मात्तच्छ्राद्धम्). पूर्वजों की पुण्यतिथि अथवा पितृपक्ष में उनकी मरण-तिथि के दिन उनकी आत्मा की संतुष्टि के लिए किया जाने वाला श्राद्ध-कर्म सही मायनों में पूर्वजों के प्रति श्रद्धांजलि ही है. इसीलिए सनातन धर्म में श्राद्ध को देव-पूजन की तरह ही आवश्यक एवं पुण्यदायक माना गया है. देवताओ से पहले पितरो को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी होता है. वायु पुराण, मत्स्य पुराण, गरुड पुराण, विष्णु पुराण आदि पुराणों तथा अन्य शास्त्रों जैसे मनुस्मृति इत्यादि में भी श्राद्ध कर्म के महत्व के बारे में बताया गया है.

भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या तक की (कुल 16 दिन) अवधि को पितृपक्ष (श्राद्धपक्ष) कहा गया है. इसके अलावा आश्विन शुक्ल प्रतिपदा (प्रथम शारदीय नवरात्रा) को ननिहाल से संबद्ध श्राद्ध का प्रावधान है, इस तरह पार्वण श्राद्ध कुल 17 दिन होते हैं. श्राद्ध यानी श्रद्धया दीयतेयत् तत श्राद्धम् अर्थात् श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए. शास्त्रों में 1500 मंत्र श्राद्ध के बारे में हैं. पुराणों, स्मृतियों व अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी श्राद्ध का बहुतायत उल्लेख है. श्राद्धपक्ष को 'कनागत' नाम भी से भी जाना जाता है. कनागत (कन्यागत सूर्य) के महीने का कृष्णपक्ष, जिसमें पितरों का श्राद्ध किया जाता है. कनागत, कन्यार्कगत का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है सूर्य (अर्क) का कन्या राशि में जाना. श्राद्धपक्ष में सूर्य कन्या राशि में होता है, इसीलिए इसे कन्यार्कगत (कनागत) कहा जाता है. आश्विन मास के कृष्णपक्ष में पितृलोक हमारी पृथ्वी के सबसे ज्यादा समीप होता है. अतएव इस पक्ष को पितृपक्ष माना जाना बिल्कुल ठीक है. कनागत में पूर्वजों का आशीर्वाद प्राप्त करने और सुख सौभाग्य की वृद्धि के लिए पितरों के निमित्त तर्पण किया जाता है. श्राद्ध और तर्पण वंशजों द्वारा पूर्वजों की दी गई श्रद्धांजलि है. हमें किसी भी स्थिति में अपने इस आध्यात्मिक कर्त्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए. 

पितृपक्ष में पितृगणोंके निमित्त तर्पण करने से वे तृप्त होकर अपने वंशज को सुख-समृद्धि-सन्तति का शुभाशीर्वाद देते हैं. पूर्णिमा से लेकर अमावस्या के मध्य की अवधि अर्थात पूरे 16 दिनों तक पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये कार्य किये जाते है. पूरे 16 दिन नियम पूर्वक कार्य करने से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है. पितृ/श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है. भोजन कराने के बाद यथाशक्ति दान-दक्षिणा दी जाती है. इससे स्वास्थ्य समृ्द्धि, आयु व सुख शान्ति रहती है. वह दान सीधा पितरों को प्राप्त होने की मान्यता है. पितरों तक यह भोजन पंचबलि (पिप्पलिका, गौ, काग, ब्राह्मण और श्वान) के माध्यम से पहुंचता है. पितृपक्ष के इन 16 दिनों में पीपल को जल देने की भी मान्यता है.

बुद्धि एवं तर्क प्रधान इस युग में श्राद्ध के औचित्य को सामान्यत: स्वीकार नहीं किया जाता. किंतु इस रूप में इस पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए कि श्राद्ध पितरों के प्रति हमारी श्रद्धा के प्रतीक हैं. श्राद्ध हमसे श्रद्धा चाहते हैं, पाखंड नहीं. यह श्रद्धा सभी बुजुर्गो के प्रति होनी चाहिए, चाहे वे जीवित हों या दिवंगत. आत्मकल्याण के इच्छुक लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध अवश्य करें.


पितृपक्ष पर विशेष लेखों का क्रम जारी है...


                                                                                            ''वशिष्ठ''

Friday, 28 September 2012

श्राद्ध में क्या करना चाहिये और क्या नहीं ?



श्राद्धकर्म पितरों की संतुष्टि के लिए किया जाता है, जो लगभग सभी हिन्दु लोग करते हैं. श्राद्धकर्म करते समय किन विशेष बातों का ध्यान रखना चाहिये और क्या नही करना चाहिये -


1. श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मण को यात्रा, भार ढोना, परिश्रम, दान देना, प्रतिग्रह, हवन एवं पुनः भोजन करना आदि कृत्य नहीं करने चाहिए एवं उसे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए.

2. श्राद्धकर्ता को श्राद्ध के दिन ताम्बूलभक्षण (पान-खाना), तेलमर्दन (शरीर पर तेल लगाना), उपवास, परान्न भक्षण नहीं करना चाहिए एवं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए.

3. श्राद्ध वाले दिन लोहे के पात्रों का प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए. वर्तमान में सर्वत्र प्रचलित स्टील में भी लोहे का अंश अधिक होता है, अतः इसका भी प्रयोग नहीं करना चाहिए. यदि पूर्णतः त्याग सम्भव नहीं हो, तो ब्राह्मण भोजन के समय तो अवश्य ही लोहे का प्रयोग नहीं करना चाहिए, भोजन यदि चाँदी के बर्तनों में या पत्तल-दोने में करवाएं तो श्रेष्ठ है.

4. श्राद्ध में पितृकार्य के लिए श्रीखण्ड, चन्दन, खस, कर्पूर सहित सफेद चन्दन का प्रयोग करना उत्तम रहता है. अन्य कस्तूरी, रक्तचंदन, सल्लक, पूतिक आदि की गंध का प्रयोग नहीं करना चाहिए.

5. श्राद्धकर्म में प्रयोग में ली जाने वाली कुशा चिता में बिछाई गई, रास्ते में पड़ी हुई, पितृतर्पण या ब्रह्मयक्ष में काम में ली गई, बिछौने, गंदगी या आसन से निकाली गई या पिंडों के नीचे रखी गई कुशा नहीं होनी चाहिए.

6. कदम्ब, केवड़ा, मौलसरी, बेलपत्र, करवीर, लाल एवं काले रंग के पुष्प तेज गंध वाले पुष्प एवं गंधरहित पुष्पों का प्रयोग श्राद्ध में निषिद्ध है.

7. श्राद्ध में चोर, पतित एवं धूर्त, मांस बेचने व्यापारी, नौकर, कुनखी, काले दाँत वाले, गुरुद्रोही, शुद्रापति, शुल्क लेकर पढ़ाने वाले, काना, जुआरी, अन्धा, कुश्ती सिखाने वाला एवं नपुंसक ब्राह्मण को नहीं बुलाना चाहिए.

8. जिस भोजन को सन्यासी ने, गर्भपात करने-कराने वाली स्त्री ने, रजस्वला स्त्री ने या कुत्ते ने देख लिया हो, जिसमें बाल और कीड़े पड़ गये हों एवं बासी अथवा दुर्गंध-युक्त भोजन का प्रयोग श्राद्ध में नहीं करना चाहिए.

9. मसूर, अरहर, राजमाष, गाजर, कुम्हड़ा, गोल लौकी, बैंगन, शलजम, हींग, प्याज, लहसुन, काला नमक, काली जीरा, सिंघाड़ा, जामुन, पिप्पली, सुपारी, कुलथी, कैथ, महुआ, अलसी, पीली सरसों, चना एवं मांस इनमें से किसी भी वस्तु का प्रयोग श्राद्ध के भोजन में कदापि नहीं करना चाहिए.

10. श्राद्ध करने के लिए कृष्ण-पक्ष एवं अपराह्न को श्रेष्ठ माना जाता है.

11. चतुर्दशी को श्राद्ध नहीं करना चाहिए, लेकिन जो पितर युद्ध में या शस्त्रादि से मारे गये हों, उनके लिए चतुर्दशी का श्राद्ध करना शुभ रहता है.

12. दिन का आठवाँ मुहूर्त्त काल ‘कुतप’ कहलाता है, इस समय में सूर्य का ताप घटने लगता है, उस समय में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है.

13. मिताक्षरा के अनुसार आठ वस्तुएँ जिनकी श्राद्ध में आवश्यकता होती है, अर्थात्—मध्याह्न, खड़्गपात्र, नेपाली कंबल, चांदी का बरतन, कुश, तिल, गाय और दौहित्र. इसे कुतापाष्टक भी कहते हैं. (ऐसा माना जाता है कि नेपाली कंबल शब्द अपभ्रंशात्मक है)

14. श्राद्धकाल में मन एवं तन को बाहर एवं भीतर से पवित्र रखना चाहिए. क्रोध एवं जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये. श्राद्ध एकान्त में करना चाहिए.

15. श्राद्ध का भोजन

Thursday, 27 September 2012

पितृपक्ष 2012, कब करें किनका श्राद्ध ?


पितृपक्ष

प्रतिवर्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से श्राद्धकर्म आरम्भ हो जाते हैं. यह भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक और उसके अगले दिन आश्विन शुक्ल प्रतिपदा तक चलते हैं. पितरों को अपनी श्रद्धा व्यक्त करने का यह एक अद्भुत अवसर होता है. जिस व्यक्ति की मृत्यु जिस तिथि में हुई है, उसी तिथि को उसका श्राद्ध मनाया जाता है. मृत व्यक्ति के लिए घर में ब्राह्मण को बुलाकर भोजन कराया जाता है. सभी व्यक्तियों को अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भावना रखते हुए पितृयज्ञ तथा श्राद्धकर्म करना जरुरी होता है. इससे पितर प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद प्रदान करते हैं. इसके फलस्वरुप स्वास्थ्य अच्छा, सुख-समृद्धि में वृद्धि, घर में शांति रहती है.

जिन लोगों की मृत्यु अचानक हो जाती है अर्थात शस्त्र, विष, दुर्घटना में मृत व्यक्तियों का श्राद्ध चतुर्दशी तिथि को किया जाता है.  इनकी मृत्यु किसी भी तिथि में हुई हो, इनका श्राद्ध चतुर्दशी में ही करने का विधान है. अमावस्या के दिन सभी लोगों का श्राद्ध किया जा सकता है. जिन लोगों की मृत्यु की तिथि ना पता हो उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन करने का विधान है. इसलिए इसे सर्वपितृ श्राद्ध भी कहा जाता है.

वर्ष 2012 में श्राद्ध की तिथियाँ (इस बार तिथियों के समय का अन्तर है)

श्राद्ध की तिथि -              दिनाँक -       वार

पूर्णिमा तिथि का श्राद्ध   29 सितम्बर शनिवार

प्रतिपदा तिथि का श्राद्ध  30 सितम्बर रविवार

द्वितीया तिथि का श्राद्ध  1 अक्तूबर सोमवार

तृतीया तिथि का श्राद्ध    2 अक्तूबर मंगलवार

चतुर्थी तिथि का श्राद्ध   4 अक्तूबर बृहस्पतिवार

पंचमी तिथि का श्राद्ध  5 अक्तूबर शुक्रवार

षष्ठी तिथि का श्राद्ध   6 अक्तूबर शनिवार

सप्तमी तिथि का श्राद्ध  7 अक्तूबर रविवार

अष्टमी तिथि का श्राद्ध  8 अक्तूबर सोमवार

नवमी तिथि का श्राद्ध  9 अक्तूबर मंगलवार

दशमी तिथि का श्राद्ध 10 अक्तूबर बुधवार

एकादशी तिथि का श्राद्ध  11 अक्तूबर बृहस्पतिवार

द्वादशी तिथि(सन्यासियों) का श्राद्ध  12 अक्तूबर शुक्रवार

त्रयोदशी तिथि का श्राद्ध 13 अक्तूबर शनिवार

चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध  14 अक्तूबर रविवार

अमावस/सर्वपितृ श्राद्ध 15 अक्तूबर सोमवार


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                                                                                     ''वशिष्ठ''

गया में श्राद्ध करना श्रेष्ठ क्यों माना जाता है ?



पिण्डदान व श्राद्ध के लिए बिहार में स्थित गया तीर्थ को सर्वश्रेष्ठ माना गया है. पितृपक्ष में यहाँ पिण्डदान व श्राद्ध के लिए लोगों की भीड़ उमड़ती है. ऐसी मान्यता है कि जिसका भी पिण्डदान व श्राद्ध यहाँ किया जाता है उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है. गया तीर्थ को तर्पण, श्राद्ध व पिण्डदान के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों माना जाता है इसके पीछे एक धार्मिक कथा है.

प्राचीन काल में गयासुर नामक एक शक्तिशाली असुर भगवान विष्णु का बहुत बड़ा भक्त था. उसने अपनी तपस्या से देवताओं को चिंतित कर रखा था.। उनकी प्रार्थना पर विष्णु व अन्य समस्त देवता गयासुर की तपस्या भंग करने उसके पास पहुंचे और वरदान माँगने के लिए कहा. गयासुर ने स्वयं को देवी-देवताओं से भी अधिक पवित्र होने का वरदान माँगा. 

वरदान मिलते ही स्थिति यह हो गई कि उसे देख या छू लेने मात्र से ही घोर पापी भी स्वर्ग में जाने लगे. यह देखकर धर्मराज भी चिंतित हो गए. इस समस्या से निपटने के लिए देवताओं ने छलपूर्वक एक यज्ञ के नाम पर गयासुर का संपूर्ण शरीर मांग लिया. गयासुर अपना शरीर देने के लिए उत्तर की तरफ पांव और दक्षिण की ओर सिर करके लेट गया.

मान्यता है कि उसका शरीर पांच कोस में फैला हुआ था, इसीलिए उस पांच कोस के भूखण्ड का नाम गया पड़ गया. गयासुर के पुण्य प्रभाव से ही वह स्थान तीर्थ के रूप में स्थापित हो गया. गया में पहले विविधि नामों से 360 वेदियां थी, लेकिन उनमें से अब केवल 48 ही शेष बची हैं. आमतौर पर इन्हीं वेदियों पर विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे अक्षयवट पर पिण्डदान करनी जरुरी समझा जाता है.

इसके अतिरिक्त नौकुट, ब्रह्योनी, वैतरणी, मंगलागौरी, सीताकुंड, रामकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, प्रेतशिला व कागबलि आदि भी पिंडदान के प्रमुख स्थल हैं.

[एक मान्यता के अनुसार माता जानकी ने भी यहाँ तर्पण किया था और उसी क्रम में फल्गु नदी, गौ, तुलसी को श्राप मिला और गयाजी स्थित एक वटवृक्ष को वरदान मिला. प्रयास है कि ये कथा भी वास्तविक स्वरूप में आप तक पहुँचे]


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                                                                                       ''वशिष्ठ''

अनंत चतुर्दशी - 29-09-12



यह व्रत भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को किया जाता है. इस दिन भगवान श्रीविष्णु की कथा होती है. इसमें उदयव्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है. यह दिन अंत न होने वाली सृष्टि के कर्ता ब्रह्म की भक्ति का दिन है. इस दिन वेद-ग्रंथों का पाठ करके भक्ति की स्मृति का डोरा बाँधा जाता है. इस व्रत की पूजा दोपहर में की जाती है.

सनातन धर्म के त्योहारों में अनंत भगवान के पूजनदिवस ''अनंत चतुर्दशी'' का विशेष महत्व है. अनंत स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का रूप है. इस व्रत को स्वयं श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को करने को कहा था. एक समय इंद्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) में युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया था. उस यज्ञ में आए दुर्योधन का भ्रमित होकर जल में गिर जाने पर द्रौपदी द्वारा अपमान हुआ था.

उसी का बदला लेने के लिए छल से पांडवों को जुए में हारकर कौरवों ने वन में भेज दिया था. उस अवधि में दु:खी पांडवों के लिए युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से उपाय पूछा था, तब श्रीकृष्णचंद्रजी ने स्वयं अनंत पूजन को युधिष्ठिर से कहा था. तब युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा था- श्रीकृष्णजी, ये अनंत कौन हैं? क्या शेषनाग हैं, क्या तक्षक सर्प है अथवा परमात्मा को कहते हैं?

श्रीकृष्ण कहते हैं अनंत रूप मेरा ही रूप है. सूर्यादि ग्रह और यह आत्मा जो कही जाती हैं, घटी-पल-विपल, दिन-रात, मास, ऋतु, वर्ष, युग- ये सब काल कहे जाते हैं. जो काल कहे जाते हैं वही अनंत कहा जाता है. मैं वही कृष्ण हूँ और पृथ्‍वी का भार उतारने के लिए बार-बार अवतार लेता हूँ. वैकुण्ठ आदि लोक, सूर्य, चंद्र, सर्वव्यापी ईश्वर तथा मध्य-अंत कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव तथा सृष्टि जो नाश करने वाले विश्वरूप इत्यादि रूपों को मैंने अर्जुन के ज्ञान के लिए दिखलाया था.

* पूजन कैसे करें

इस दिन व्रती प्रातः स्नान करके निम्न मंत्र से संकल्प लें-
ममाखिलपापक्षयपूर्वक शुभफलवृद्धये
श्रीमदनंतप्रीतिकामनया अनंतव्रतमहं करिष्ये |
संकल्प के पश्चात अपने पूजन स्थल को स्वच्छ व पुष्पादि सुशोभित करें.
इसके बाद कलश की स्थापना करें.
कलश पर अष्टदल कमल के समान बने बर्तन में कुश से निर्मित अनंत की स्थापना करें.
इसके पास कुमकुम, केसर या हल्दी रंजित चौदह गाँठों वाला 'अनंत' भी रखें.
तदुपरांत कुश के अनंत की वंदना करके, उसमें भगवान विष्णु का आवाहन तथा ध्यान करें.
फिर गंध, अक्षत, पुष्प, धूप तथा नैवेद्य से पूजन कर निम्न मंत्र से नमस्कार करें-
नमस्ते देव देवेश नमस्ते धरणीधर |
नमस्ते सर्व नागेंद्र नमस्ते पुरुषोत्तम ||

इसके बाद अनंत देव का पुनः ध्यान करके शुद्ध अनंत को अपनी दाहिनी भुजा पर बाँधें.
नवीन अनंत को धारण कर पुराने का त्याग निम्न मंत्र से करें-
न्यूनातिरिक्तानि परिस्फुटानि यानीह कर्माणि मया कृतानि |
सर्वाणि चैतानि मम क्षमस्व प्रयाहि तुष्टः पुनरागमाय ||

पूजन के पश्चात्‌ अनंत भाव को समझते हुए, श्रीमद्भगवद्गीता (11 वाँ अध्याय) में अर्जुन द्वारा की गई स्तुति को श्री अनंत देव की प्रार्थना के रुप में, इन भावों से करें,

त्वमादिदेव: पुरुषः पुराण
स्त्वमस्य विश्वस्य परं विधानम् |
वेत्तासि वेद्यं च परं धाम
त्वया ततं विश्वमन्तरूप ||
अर्थ- आप ही ‍आदिदेव और पुराणपुरुष हैं तथा आप ही इस संसार के आश्रय हैं. आप इस ही सबको जाननेवाले, जाननेयोग्य और परमधाम हैं. हे अनंतरूप, आपसे यह सब जगत व्याप्त अर्थात परिपूर्ण है.

वायुर्यमोऽग्निर्वरूणः शशांकः
प्रजापतिस्त्वं प्रपिताहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
अर्थ- आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, दक्षादि प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्माजी के भी पिता) हैं. आपके लिए हजारों बार नमस्कार है, नमस्कार है. आपके लिए फिर बारंबार नमस्कार है. हे अनंत सामर्थ्य वाले आपके लिए हर तरफ से नमस्कार है, क्योंकि अनंत पराक्रमशाली आप समस्त संसार को व्याप्त किए हुए हैं. उससे आप ही सर्वरूप हैं.

पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् |
न त्वत्समोऽस्यभ्यधिकः कुत्तोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्य‍प्रतिम प्रभाव ||
अर्थ- आप इस चराचर जगत के पिता और सबसे बड़े गुरु एवं अतिपूजनीय हैं. हे अनुपम प्रभाव वाले तीनों लोकों में आपके समान कोई दूसरा नहीं है तो अधिक

Wednesday, 26 September 2012

श्री भुवनेश्वरी जयंती - 27.9.12



माँ भुवनेश्वरी शक्ति का आधार हैं तथा प्राणियों का पोषण करने वाली हैं. माँ भुवनेश्वरी जी की जयंती इस वर्ष 27 सितंबर 2012, को शुक्रवार के दिन मनाई जानी है. यही शिव की लीला-विलास सहभागी हैं. इनका स्वरूप कांति पूर्ण एवं सौम्य है. चौदह भुवनों की स्वामिनी माँ भुवनेश्वरी दस महाविद्याओं में से एक हैं. शक्ति सृष्टि क्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा हैं. देवी के मस्तक पर चंद्रमा शोभायमान है.

तीनों लोकों को धारण करने वाली तथा वर देने की मुद्रा, अंकुश, पाश और अभय मुद्रा धारण करने वाली माँ भुवनेश्वरी अपने तेज एवं तीन नेत्रों से युक्त हैं. देवी अपने तेज से संपूर्ण सृष्टि को देदीप्यमान करती हैं. माँ भुवनेश्वरी की साधना से शक्ति, लक्ष्मी, वैभव और उत्तम विद्याएं प्राप्त होती हैं. इन्हीं के द्वारा ज्ञान तथा वैराग्य की प्राप्ति होती है. इसकी साधना से सम्मान प्राप्ति होती है.


* देवी भुवनेश्वरी स्वरुप

माता भुवनेश्वरी सृष्टि के ऐश्वर्य की स्वामिनी हैं. चेतनात्मक अनुभूति का आनंद इन्हीं में हैं. विश्वभर की चेतना इनके अंतर्गत आती है. गायत्री उपासना में माँ भुवनेश्वरी का भाव निहित है. भुवनेश्वरी माता के एक मुख, चार हाथ हैं चार हाथों में गदा-शक्ति का एवं दंड-व्यवस्था का प्रतीक है. आशीर्वाद मुद्रा प्रजापालन की भावना का प्रतीक है यही सर्वोच्च सत्ता की प्रतीक हैं. विश्व भुवन की जो, ईश्वर हैं, वही भुवनेश्वरी हैं.

इनका वर्ण श्याम तथा गौर वर्ण हैं. इनके नख में ब्रह्माण्ड का दर्शन होता है. माता भुवनेश्वरी सूर्य के समान लाल वर्ण युक्त दिव्य प्रकाश से युक्त हैं. इनके मस्तक पर मुकुट स्वरूप चंद्रमा शोभायमान है. मां के तीन नेत्र हैं तथा चारों भुजाओं में वरद मुद्रा, अंकुश, पाश और अभय मुद्रा है.


* माँ भुवनेश्वरी मंत्र

वामन जयंती - 26.9.12



               भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी को वामन द्वादशी या वामन जयंती के रुप में मनाया जाता है. धर्म ग्रंथों के अनुसार इसी शुभ तिथि को श्रवण नक्षत्र के अभिजित मुहूर्त में श्रीविष्णु के एक रुप भगवान वामन का अवतार हुआ था. इस वर्ष वामन जयंती, 26 सितंबर 2012 को बुधवार के दिन है.

               इस दिन प्रात:काल भक्तों को श्रीहरि का स्मरण करने नियमानुसार विधि विधान के साथ पूजा कर्म करना चाहिए. भगवान वामन का पंचोपचार अथवा षोडषोपचार पूजन करने के पश्चात चावल, दही इत्यादि वस्तुओं का दान करना उत्तम माना गया है. संध्या समय व्रती भगवान वामन का पूजन करना चाहिए और व्रत कथा सुननी चाहिए तथा समस्त परिवार वालों को भगवान का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए. इस दिन व्रत एवं पूजन करने से भगवान वामन प्रसन्न होते हैं और भक्तों की समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं.


* वामन जयंती कथा

               वामन अवतार भगवान विष्णु का महत्वपूर्ण अवतार माना जाता है. भगवान की लीला अनंत है और उसी में से एक वामन अवतार है इसके विषय में श्रीमद्भगवदपुराण में विस्तार से उल्लेख है. वामन अवतार कथानुसार देव और दैत्यों के युद्ध में दैत्य पराजित होने लगते हैं. पराजित दैत्य मृत एवं आहतों को लेकर अस्ताचल चले जाते हैं और दूसरी ओर दैत्यराज बलि इन्द्र के वज्र से मृत हो जाते हैं तब दैत्यगुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से बलि और दूसरे दैत्य को भी जीवित एवं स्वस्थ कर देते हैं. राजा बलि के लिए शुक्राचार्यजी एक यज्ञ का आयोजन करते हैं तथ अग्नि से दिव्य रथ, बाण, अभेद्य कवच पाते हैं इससे असुरों की शक्ति में वृद्धि हो जाती है और असुर सेना अमरावती पर आक्रमण करने लगती है.

               इंद्र को राजा बलि की इच्छा का ज्ञान होता है कि राजा बलि इस सौ यज्ञ पूरे करने के बाद स्वर्ग को प्राप्त करने में सक्षम हो जाएंगे, तब इन्द्र भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं. भगवान विष्णु उनकी सहायता करने का आश्वासन देते हैं और भगवान विष्णु वामन रुप में माता अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने का वचन देते हैं. दैत्यराज बलि द्वारा देवों के पराभव के बाद कश्यपजी के कहने से माता अदिति पयोव्रत का अनुष्ठान करती हैं जो पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है. तब भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन माता अदिति के गर्भ से प्रकट हो अवतार लेते हैं तथा ब्रह्मचारी ब्राह्मण का रूप धारण करते हैं.

              महर्षि कश्यप ऋषियों के साथ उनका उपनयन संस्कार करते हैं वामन बटुक को महर्षि पुलह ने यज्ञोपवीत, अगस्त्य ने मृगचर्म, मरीचि ने पलाश दण्ड, आंगिरस ने वस्त्र, सूर्य ने छत्र, भृगु ने खड़ाऊं, गुरु देव जनेऊ तथा कमण्डल, अदिति ने कोपीन, सरस्वती ने रुद्राक्ष माला तथा कुबेर ने भिक्षा पात्र प्रदान किए. तत्पश्चात भगवान वामन पिता से आज्ञा लेकर

जलझूलनी एकादशी / पद्मा एकादशी 26.9.2012


                भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी पद्मा एकादशी कही जाती है. इस वर्ष 26 सितम्बर 2012 को पद्मा एकादशी का पर्व है. इस दिन भगवान श्री विष्णु के वामन रुप की पूजा की जाती है. इस व्रत को करने से व्यक्ति के सुख, सौभाग्य में बढोतरी होती है. इस एकादशी के विषय में एक मान्यता है, कि इस दिन माता यशोदा ने भगवान श्री कृष्ण के जन्म के बाद जाल पूजन किया था. इसी कारण से इस एकादशी को "जलझूलनी एकादशी" भी कहा जाता है. मंदिरों में इस दिन भगवान श्री विष्णु को पालकी में बिठाकर शोभा यात्रा निकाली जाती है. जलकुंडों या नदी-तालाब में उनको स्नान कराया जाता है. 



* जलझूलनी एकादशी पूजा

                इस व्रत में धूप, दीप, नैवेद्य और पुष्प आदि से पूजा करने की विधि-विधान है. एक तिथि के व्रत में सात कुम्भ स्थापित किये जाते है. सातों कुम्भों में सात प्रकार के अलग- अलग धान्य भरे जाते हैं. इन सात अनाजों में गेहूं, उडद, मूंग, चना, जौ, चावल और बाजरा (कहीं-कहीं मसूर) है. एकादशी तिथि से पूर्व की तिथि अर्थात दशमी तिथि के दिन इनमें से किसी धान्य का सेवन नहीं करना चाहिए.

             कुम्भ के ऊपर श्री विष्णु जी की मूर्ति रख पूजा की जाती है. इस व्रत को करने के बाद रात्रि में श्री विष्णु जी के पाठ का जागरण करना चाहिए. यह व्रत दशमी तिथि से शुरु होकर, द्वादशी तिथि तक जाता है. इसलिये इस व्रत की अवधि सामान्य व्रतों की तुलना में कुछ लम्बी होती है. एकादशी तिथि के दिन पूरे दिन व्रत कर अगले दिन द्वादशी तिथि के प्रात:काल में अन्न से भरा घडा ब्राह्माण को दान में दिया जाता है.


* डोल ग्यारस
              राजस्थान में जलझूलनी एकादशी को डोल ग्यारस भी कहा जाता है. इस अवसर पर यहां

Saturday, 22 September 2012

राधाष्टमी - 23.9.12


राधाष्टमी      

भाद्रपद मास में शुक्ल पक्ष की अष्टमी को कृष्ण प्रिया राधाजी का जन्म हुआ था, अत: यह दिन राधाष्टमी के रूप में मनाया जाता है. राधाष्टमी के अवसर पर उत्तर प्रदेश के बरसाना में हजारों श्रद्धालु एकत्र होते हैं. बरसाना को राधा जी की जन्मस्थली माना जाता है. बरसाना मथुरा से 50 कि.मी. दूर उत्तर-पश्चिम में और गोवर्धन से 21 कि.मी. दूर उत्तर में स्थित है. यह एक पर्वत के ढ़लाऊ हिस्से में बसा हुआ है जिसे ब्रह्मा पर्वत के नाम से जाना जाता है.

 राधाभाव   
श्रीकृष्ण की भक्ति, प्रेम और रस की त्रिवेणी जब हृदय में प्रवाहित होती है, तब मन तीर्थ बन जाता है। 'सत्यम्‌ शिवम्‌ सुंदरम्‌' का यह महाभाव ही 'राधाभाव' कहलाता है. श्रीकृष्ण वैष्णवों के लिए परम आराध्य हैं, वैष्णव श्रीकृष्ण को ही अपना सर्वस्व मानते हैं, आनंद ही उनका स्वरूप है. भगवान श्रीकृष्ण की उपासना मात्र वैष्णवों के लिए ही नहीं, वरन समस्त प्राणियों के लिए आनंददायक है. श्रीकृष्ण ही आनंद का मूर्तिमान स्वरूप हैं और कृष्ण प्रेम की सर्वोच्च अवस्था ही 'राधाभाव' है.


उपनिषद और पुराणों से  

जिस प्रकार श्रीकृष्ण आनंद का विग्रह हैं, उसी प्रकार राधा प्रेम की मूर्ति हैं. अत: जहां श्रीकृष्ण हैं, वहीं राधा हैं और जहां राधा हैं, वहीं श्रीकृष्ण हैं. कृष्ण के बिना राधा या राधा के बिना कृष्ण की कल्पना के संभव नहीं हैं. इसी से राधा 'महाशक्ति' कहलाती हैं.
* राधोपनिषद्‌ में राधा का परिचय देते हुए कहा गया है-
कृष्ण इनकी आराधना करते हैं, इसलिए ये राधा हैं और ये सदा कृष्ण की आराधना करती हैं, इसीलिए राधिका कहलाती हैं. ब्रज की गोपियां और द्वारका की रानियां इन्हीं श्री राधा की अंशरूपा हैं. ये राधा और ये आनंद सागर श्रीकृष्ण एक होते हुए भी क्रीडा के लिए दो हो गए हैं. राधिका कृष्ण की प्राण हैं. इन राधा रानी की अवहेलना करके जो कृष्ण की भक्ति करना चाहता है, वह उन्हें कभी पा नहीं सकता.'

* स्कंद पुराण के अनुसार राधा श्रीकृष्ण की आत्मा हैं. इसी कारण भक्तजन सीधी-साधी भाषा में उन्हें 'राधारमण' कहकर पुकारते हैं.

* पद्म पुराण में 'परमानंद' रस को ही राधा-कृष्ण का युगल-स्वरूप माना गया है. इनकी आराधना के बिना जीव परमानंद का अनुभव नहीं कर सकता.


* भविष्य पुराण और गर्ग संहिता के अनुसार, द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतरित हुए, तब भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन महाराज वृषभानु की पत्नी कीर्ति के यहां भगवती राधा अवतरित हुईं. तब से भाद्रपद शुक्ल अष्टमी 'राधाष्टमी' के नाम से विख्यात हो गई.

* नारद पुराण के अनुसार 'राधाष्टमी' का व्रत करनेवाला भक्त ब्रज के दुर्लभ रहस्य को जान लेता है.

* पद्म पुराण में सत्यतपा मुनि सुभद्रा गोपी प्रसंग में राधा नाम का स्पष्ट उल्लेख है. राधा और कृष्ण को 'युगल सरकार' की संज्ञा तो कई जगह दी गई है.

* शिव पुराण में श्रीकृष्ण सखा विप्र सुदामा से भिन्न एक सुदामा गोप को राधाजी द्वारा श्राप दिए जाने का उल्लेख है, जिसके कारण वह् सुदामा गोप भी राधाजी को श्राप देता है और इसी श्राप के कारण राधाजी और कृष्णजी का 100 वर्ष का वियोग पृथ्वी पर होता है. (श्रीकृष्ण के गोकुल छोडने से लेकर कुरुक्षेत्र में राधाजी से दुबारा हुई भेंट तक) 


निष्काम प्रेम और समर्पण

 राधा का प्रेम निष्काम और नि:स्वार्थ है. वह श्रीकृष्ण को समर्पित हैं, राधा श्रीकृष्ण से कोई कामना की पूर्ति नहीं चाहतीं. वह सदैव श्रीकृष्ण के आनंद के लिए उद्यत रहती हैं. इसी प्रकार जब मनुष्य सर्वस्व समर्पण की भावना के साथ कृष्ण प्रेम में लीन होता है, तभी वह राधाभाव ग्रहण कर पाता है. कृष्ण प्रेम का शिखर राधाभाव है. तभी तो श्रीकृष्ण को पाने के लिए हर कोई राधारानी का आश्रय लेता है.

महाभावस्वरूपात्वंकृष्णप्रियावरीयसी।
प्रेमभक्तिप्रदेदेवि राधिकेत्वांनमाम्यहम्॥




राधा जी की सखियाँ

दधीचि जयंती - 23.09.2012



प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की अष्टमी को दधीचि जंयती मनाई जाती है. पौराणिक आख्यानों के अनुसार ऋषि दधीचि ने अपनी हड्डियो को दान में देकर देवताओं की रक्षा की थी. इस वर्ष 23 सितंबर 2012 को दधीचि  जयंती मनाई जाएगी.

* ऋषि दधीचि *

भारतीय प्राचीन ऋषि-मुनि परंपरा के महत्वपूर्ण ऋषियों में से एक रहे आत्मत्यागी ऋषि दधीचि, जिन्होंने विश्व कल्याण हेतु अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. इसलिए इन महान आत्मत्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बहुत आदर के साथ लिया जाता है. ऋषि दधीचि के पिता महान ऋषि अथर्वा जी थे और इनकी माता का नाम शान्ति था. ऋषि दधीचि ने अपना संपूर्ण जीवन भगवान शिव की भक्ति में व्यतीत किया. उन्होंने कठोर तप द्वारा अपने शरीर को कठोर बना लिया था. अपनी कठोर तपस्या द्वारा तथा अटूट शिवभक्ति से ही यह सभी के लिए आदरणीय हुए.

एक बार इनके तप ने तीनों लोकों को विचलित कर दिया था. कथा इस प्रकार है एक बार ऋषि दधीचि ने बहुत कठोर तपस्या आरंभ कि उनकी इस तपस्या से सभी लोग भयभीत होने लगे इंद्र का सिंहांसन डोलने लगाँ. इनकी तपस्या के ते़ज से तीनों लोक आलोकित हो गये. इसी प्रकार कोई भी उनकी तपस्या से प्रभावित हुए बिना न रह सके. समस्त देवों के सथ इंद्र भी इस तपस्या से प्रभावित हुए और इन्द्र को लगा कि अपनी कठोर तपस्या के द्वारा दधीचि इन्द्र पद प्राप्त करना चाहते हैं. अत: इंद्र ने ऋषि की तपस्या को भंग करने के लिए अपनी रूपवती अप्सरा को ऋषि दधीचि के समक्ष भेजा. अप्सरा के अथक प्रयत्न के पश्चात भी ऋषि की तपस्या जारी रहती है. असफल अपप्सरा इन्द्र के पास लौट आती हैं, बाद में इंद्र को उनकी शक्ति का भान होता है तो वह ऋषि के समक्ष अपनी भूल के लिए क्षमा याचना करते हैं.


 वृत्रासुर और दधीचि का अस्थि दान


एक बार वृत्रासुर के भय से इन्द्र अपना सिंहासन छोड़कर देवताओं के साथ मारे-मारे फिरने लगते हैं वह अपनी व्यथा ब्रह्माजी को बताते हैं तो ब्रह्माजी उन्हें ऋषि दधीचि के पास जाने की सलाह देते हैं क्योंकि इस संकट के समय़ केवल दधीचि ही उनकी सहायता कर सकते थे. यदि वह अपनी अस्थियो का दान देते तो उनकी अस्थियो से बने शस्त्रों से वृत्रासुर मारा जा सकता है. क्योंकि ऋषि दधीचि की अस्थियों मे तप के कारण ब्रह्मतेज व्याप्त था, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता था क्योंकि वृत्रासुर पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का कोई असर नहीं हो रहा था. तब इंद्र ब्रह्माजी के कहे अनुसार ऋषि दधीचि के पास जाते हैं. इंद्र ऋषि से प्रार्थना करते हुए उनसे उनकी हड्डियाँ दान स्वरुप मांगते हैं. ऋषि दधीचि उन्हें निस्वार्थ रुप से लोकहित के लिये मैं अपना शरीर प्रदान कर देते हैं. इस प्रकार ऋषि दधीचि की हड्डियों से वज्र का निर्माण होता है और जिसके  प्रयोग से इंद्र ने वृत्रासुर का अंत किया. इस प्रकार परोपकारी ऋषि दधीचि के त्याग द्वारा तीनों लोकों की रक्षा होती है और इंद्र को उनका स्थान पुन: प्राप्त होता है.


आत्मत्यागी ऋषि दधिचि को कोटि-कोटि नमन...


                                                                                  अभिनव शर्मा ''वशिष्ठ''

Wednesday, 19 September 2012

क्या है ऋषि पञ्चमी और इसका व्रत विधान



               भाद्रपद के शुक्लपक्ष की पंचमी को ऋषि पञ्चमी व्रत किया जाता है. प्रथमत: यह सभी वर्णों के पुरुषों के लिए प्रतिपादित था, किन्तु अब यह अधिकांश में नारियों द्वारा किया जाता है. ब्रह्माण्ड पुराण में इसका विशद विवरण उपस्थित है.
इसमें व्यक्ति को नदी आदि में स्नान करने तथा आह्लिक कृत्य करने के उपरान्त अग्निहोत्रशाला में जाना चाहिए, सातों ऋषियों की प्रतिमाओं को पंचामृत से अभिषेक कराना चाहिए, उन पर चन्दन लेप, पुष्पों, सुगन्धित पदार्थों, धूप, दीप, श्वेत वस्त्रों, यज्ञोपवीतों, अधिक मात्रा में नैवेद्य से पूजा करनी चाहिए और मन्त्रों के साथ अर्ध्य चढ़ाना चाहिए.

अर्ध्यमन्त्र:

कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोय गौतम:।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषय: स्मृता:॥
गृह्णन्त्वर्ध्य मया दत्तं तुष्टा भवत मे सदा॥

* वराहमिहिर की बृहत्संहिता (13।5-6) में सप्तर्षियों के नाम आये हैं (जो पूर्व से आरम्भ किये गये हैं) यथा मरीचि, वशिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, कतु ;13।6 में आया है कि साध्वी अरून्धती वशिष्ठ के पास हैं. इस व्रत में केवल शाकों का प्रयोग होता है और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है. इसके करने से सभी पापों एवं तीनों प्रकार के दु:खों से छुटकारा मिलता है तथा सौभाग्य की वृद्धि होती है. जब नारी इसे सम्पादित करती है तो उसे आनन्द, शरीर-सौन्दर्य, पुत्रों एवं पौत्रों की प्राप्ति होती है.

पश्चात्कालीन निबन्ध व्रतार्क, व्रतराज आदि ने भविष्योत्तर पुराण से उद्धृत कर बहुत-सी बातें लिखी हैं, जहाँ कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को सुनायी गयी एक कथा भी है. जब इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र वृत्र का हनन किया तो उन्हें ब्रह्महत्या का अपराध लगा. उस पाप को चार स्थानों में बाँटा गया, यथा अग्नि (धूम से मिश्रित प्रथम ज्वाला), नदियों (वर्षाकाल के पंकिल जल), पर्वतों (जहाँ गोंद वाले वृक्ष उगते हैं) में तथा स्त्रियों (रजस्वला) में.(भागवतकार से थोड़ा भेद है) अत: मासिक धर्म के समय लगे पाप से छुटकारा पाने के लिए यह व्रत स्त्रियों द्वारा किया जाना चाहिए.

इसका संकल्प यों है-

अहं ज्ञानतोऽज्ञानतो वा रजस्वलावस्यायां कृतसंपर्कजनितदोषपरिहारार्थमृषिपञ्चमीव्रतं करिष्ये |

ऐसा संकल्प करके अरून्धती के साथ सप्तर्षियों की पूजा करनी चाहिए||

व्रतराज के मत से इस व्रत में केवल शाकों या नीवारों या साँवा (श्यामाक) या कन्द-मूलों या फलों का सेवन करना चाहिए तथा हल से उत्पन्न किया हुआ अन्न नहीं खाना चाहिए. आजकल जब पुरुष भी इस व्रत को करते हैं तो वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है, यथा कश्यप ऋषि, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं वसिष्ठ के लिए ऋग्वेद से  मन्त्र  लिए जाते हैं.

अरून्धती के लिए भी मन्त्र है—
अत्रेर्यथानसूया स्याद् वसिष्ठस्याप्यरून्धती | कौशिकस्य यथा सती तथा त्वमपि भर्तरि ||

यह अरून्धती के आवाहन के लिए है. यह व्रत सात वर्षों का होता है. सात घड़े होते हैं और सात ब्राह्मण निमन्त्रित रहते हैं, जिन्हें अन्त में ऋषियों की सातों प्रतिमाएँ (सोने या चाँदी की) दान में दे दी जाती हैं. यदि सभी प्रतिमाएँ एक ही कलश में रखी गयी हों तो वह कलश एक ब्राह्मण को तथा अन्यों को कलशों के साथ वस्त्र एवं दक्षिणा दी जाती है.

विशेष:- यदि पंचमी तिथि चतुर्थी एवं षष्टी से संयुक्त हो तो ऋषि पंचमी व्रत चतुर्थी से संयुक्त पंचमी को किया जाता है न कि षष्ठीयुक्त पंचमी को। किन्तु इस विषय में मतभेद है. सम्भवत: आरम्भ में ऋषिपंचमी व्रत सभी पापों की मुक्ति के लिए सभी लोगों के लिए व्यवस्थित था, किन्तु आगे चलकर यह केवल नारियों से ही सम्बन्धित रह गया. किन्तु सौराष्ट्र में इसका सम्पादन नहीं होता.

ऋषि पञ्चमी कथाएं:-


Tuesday, 18 September 2012

श्रीगणेशचतुर्थी - 19.09.12


|| श्रीमन्महागणाधिपतये नम: ||

शिवपुराणमें भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को मंगलमूर्तिगणेश की अवतरण-तिथि बताया गया है जबकि गणेशपुराणके मत से यह गणेशावतार भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को हुआ था.

शिवपुराणके अन्तर्गत रुद्रसंहिता के चतुर्थ (कुमार) खण्ड में यह वर्णन है कि माता पार्वती ने स्नान करने से पूर्व अपनी उबटन से एक बालक को उत्पन्न करके उसे अपना द्वारपाल बना दिया. शिवजी ने जब प्रवेश करना चाहा तब बालक ने उन्हें रोक दिया. इस पर शिवगणों ने बालक से भयंकर युद्ध किया परंतु संग्राम में उसे कोई पराजित नहीं कर सका. अन्ततोगत्वा भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से उस बालक का सर काट दिया. इससे भगवती शिवा क्रुद्ध हो उठीं और उन्होंने प्रलय करने की ठान ली. भयभीत देवताओं ने देवर्षिनारद की सलाह पर जगदम्बा की स्तुति करके उन्हें शांत किया. शिवजी के कथनानुसार विष्णुजी ऊत्तर दिशा में सबसे पहले मिले जीव (एक हाथी) का सिर काटकर ले आए. मृत्युंजय रुद्र ने गज के उस मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया. माता पार्वती ने हर्षातिरेक से उस गजमुख बालक को अपने हृदय से लगा लिया और देवताओं में अग्रणी होने का आशीर्वाद दिया. ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने उस बालक को सर्वाध्यक्ष घोषित करके अग्रपूज्य होने का वरदान दिया. भगवान शंकर ने बालक से कहा-गिरिजानन्दन! विघ्न नाश करने में तेरा नाम सर्वोपरि होगा. तू सबका पूज्य बनकर मेरे समस्त गणों का अध्यक्ष हो जा. गणेश्वर!तू भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को चंद्रमा के उदित होने पर उत्पन्न हुआ है. इस तिथि में व्रत करने वाले के सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा और उसे सब सिद्धियां प्राप्त होंगी. कृष्णपक्ष की चतुर्थी की रात्रि में चंद्रोदय के समय गणेश तुम्हारी पूजा करने के पश्चात् व्रती चंद्रमा को अ‌र्घ्यदेकर ब्राह्मण को मिष्ठान खिलाए, तदोपरांत स्वयं भी मीठा भोजन करे. वर्षपर्यन्त श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत करने वाले की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है.
* गणेशपुराण के अनुसार कथा लगभग ऐसे ही है, तिथी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी है.


सभी को गणेशचतुर्थी की हार्दिक मंगलकामनाएं...

श्रीगणेशचतुर्थी : कलंकचतुर्थी : चंद्रदर्शन का उपाय



                एक बार नंदकिशोर ने सनतकुमारों से कहा कि चौथ की चंद्रमा के दर्शन करने से जो लांछन लगा था, वह सिद्धि विनायक व्रत करने से ही दूर हुआ था. ऐसा सुनकर सनतकुमारों को आश्चर्य हुआ. उन्होंने पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण को कलंक लगने की कथा पूछी तो नंदकिशोर ने बताया.

               एक बार जरासन्ध से युद्ध ना करने का विचार करके श्रीकृष्ण समुद्र के मध्य नगरी बसाकर रहने लगे. इसी नगरी का नाम द्वारिकापुरी था. द्वारिकापुरी में निवास करने वाले सत्राजित यादव ने सूर्यनारायण की आराधना की. तब भगवान सूर्य ने उसे नित्य आठ सेर सोना देने वाली स्यमन्तक नामक मणि अपने गले से उतारकर दे दी. मणि पाकर सत्राजित यादव जब सभा में गया तो श्रीकृष्ण ने उस मणि को सुरक्षा की दृष्टि से राजकोष में देने की इच्छा व्यक्त की. सत्राजित ने वह मणि श्रीकृष्ण को न देकर अपने भाई प्रसेनजित को दे दी. एक दिन प्रसेनजित घोड़े पर चढ़कर शिकार के लिए गया. वहाँ एक शेर ने उसे मार डाला और मारने के प्रयास में मणि  शेर  के पँजे में फँस गई. रास्ते में रामायणकालीन रीछों के राजा जामवन्त ने उस सिंह को मारकर मणि प्राप्त कर ली, गुफा में लाकर मणि उन्होनें अपनी पुत्री जाम्बवंती को दे दी.

             जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से नहीं लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ. उसने सोचा, श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा. अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमन्तक मणि छीन ली है. इस लोक-निन्दा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए. वहाँ पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालना और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए. रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जामवन्त की गुफा पर पहुँचे और गुफा के भीतर चले गए. वहाँ उन्होंने देखा कि जामवन्त की पुत्री उस मणि से खेल रही है. श्रीकृष्ण को देखते ही जामवन्त युद्ध के लिए तैयार हो गया. युद्ध छिड़ गया, श्रीकृष्ण और जाम्बवंतजी के बीच 21 दिन तक मल्लयुद्ध हुआ. इक्कीस दिन तक लगातार युद्ध करने पर भी जामवन्त श्रीकृष्ण को पराजित न कर सके. तब उन्होनें सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था. यह पुष्टि होने पर उन्होनें अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी. श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो श्रीकृष्ण ने मणि वापस सत्राजित को दे दी. सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ. इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया.

             कुछ समय के बाद श्रीकृष्ण किसी काम से इंद्रप्रस्थ चले गए. तब अक्रूर तथा ऋतु वर्मा की राय से शतधन्वा यादव ने सत्राजित को मारकर मणि अपने कब्जे में ले ली. सत्राजित की मौत का समाचार जब श्रीकृष्ण को मिला तो वे तत्काल द्वारिका पहुँचे. वे शतधन्वा को मारकर मणि छीनने को तैयार हो गए. इस कार्य में सहायता के लिए बलराम भी तैयार थे. यह जानकर शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और स्वयं भाग निकला. श्रीकृष्ण ने उसका पीछा करके उसे मार तो डाला, पर मणि उन्हें नहीं मिल पाई. बलरामजी भी वहाँ पहुँचे, श्रीकृष्ण ने उन्हें बताया कि मणि इसके पास नहीं है. बलरामजी को विश्वास न हुआ, वे अप्रसन्न होकर इंद्रप्रस्थ चले गए. श्रीकृष्ण के द्वारिका लौटने पर, यह समाचार फैल गया कि स्यमन्तक मणि के लोभ में श्रीकृष्ण ने अपने भाई को भी त्याग दिया. श्रीकृष्ण इस अकारण प्राप्त अपमान के शोक में डूबे थे कि सहसा वहाँ नारदजी आ गए. उन्होंने श्रीकृष्णजी को बताया- आपने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चंद्रमा का दर्शन किया था. इसी कारण आपको इस तरह लांछित होना पड़ा है.

श्रीवराह जयंती - 18.9.12



सनातन हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को वराह जयंती का पर्व मनाया जाता है. भगवान विष्णु ने इस दिन वराहावतार लेकर हिरण्याक्ष नामक दैत्य का वध किया था. इस बार श्रीवराह जयंती आज यानि 18 सितंबर, मंगलवार को है.

वराह अवतार से जुड़ी कथा इस प्रकार है-

पुरातन समय में दैत्य हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया, तब ब्रह्मा की नाक से भगवान विष्णु वराह रूप में प्रकट हुए. भगवान विष्णु के इस रूप को देखकर सभी देवताओं व ऋषि-मुनियों ने उनकी स्तुति की. सबके आग्रह पर भगवान वराह ने पृथ्वी को ढूंढना प्रारंभ किया. अपनी थूथनी की सहायता से उन्होंने पृथ्वी का पता लगा लिया और समुद्र के अंदर जाकर अपने दांतों पर रखकर वे पृथ्वी को बाहर ले आए.

जब हिरण्याक्ष दैत्य ने यह देखा तो उसने वह भगवान विष्णु के वराह रूप को युद्ध के लिए ललकारा. दोनों में भीषण युद्ध हुआ. अंत में भगवान वराह ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया. इसके बाद भगवान वराह ने अपने खुरों से जल को स्तंभित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया. इसके पश्चात् भगवान वराह अंतर्धान हो गए.

विशेष- ज्योतिष के सन्दर्भ से महर्षि पराशर ने बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में वराहावतार का उद्भव राहु ग्रह को माना है.

अकारण करूणावरूणालय, वराहरूपधारी श्रीहरि को नमन..

हरितालिका तीज - 18.9.12



               भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन अखंड सौभाग्य की कामना के लिए स्त्रियां हरतालिका तीज का विशिष्ट व्रत रखती हैं. शास्त्र इस व्रत की आज्ञा सम्पूर्ण स्त्री जाति को प्रदान करता है. कुँवारी कन्याएँ सुयोग्य एवं सुंदर जीवनसाथी की प्राप्ति के लिए और विवाहिता स्त्रियां अपने पति की सुख, समृद्धि और दीर्घायु के लिए यह व्रत करती हैं. इस व्रत को अखण्ड सौभाग्य प्रदान करने वाला  माना जाता है. यह सबसे कठिन व्रत माना जाता है. इसमें सुबह चार बजे उठकर बिना बोले नहाना होता है और फिर निर्जल रहकर व्रत करना पड़ता है अर्थात इसमें अन्न, फल, दूध इत्यादि की मनाही तो होती है, पूरे दिन व्रत करने वाली स्त्रियां जल भी नहीं पीती. हरतालिका तीज पर रात भर भजन-जागरण होता है. इस व्रत को करने की इच्छुक स्त्रियों को चाहिए कि वे व्रत के एक दिन पहले बहुत ही सात्विक आहार लें. फलाहार अथवा अन्य हल्का आहार करना उत्तम होगा. रात्रि को सोने से पहले दातुन कर लेना चाहिए. रात्रि में सोते समय भवगती पार्वती और भगवान शिव से इस कठिन व्रत को पूरा करने के लिए शक्ति प्रदान करने की प्रार्थना करें.
इस व्रत का प्रारंभ ''मम उमामहेश्वरसायुज्य सिद्धये हरितालिका व्रतमहं करिष्ये'' के संकल्प के साथ करना चाहिए.

              भारतीय महिलाओं ने इस पुरानी परंपराओं को कायम रखा है. यह शिव-पार्वती की आराधना का सौभाग्य व्रत है, जो केवल महिलाओं के लिए है. महिलाएं व कन्याएं भगवान शिव को गंगाजल, दही, दूध, शहद आदि से स्नान कराकर उन्हें फल समर्पित करती हैं. रात्रि के समय अपने घरों में सुंदर वस्त्रों, फूल पत्रों से सजाकर फुलहरा बनाकर भगवान शिव और पार्वती का विधि-विधान से पूजन अर्चन किया जाता है.


पौराणिक कथा : 

                हरितालिका तीज की पौराणिक कथा के अनुसार एक बार शंकर-पार्वती कैलाश पर्वत पर बैठे थे. तब पार्वती ने शंकर जी से पूछा कि सभी व्रतों में श्रेष्ठ व्रत कौन-सा है और मैं आपको पत्नी के रूप में कैसे मिली. तब शंकर जी ने कहा कि जिस प्रकार नक्षत्रों में चंद्रमा, ग्रहों में सूर्य, चार वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में विष्णु, नदियों में गंगा श्रेष्ठ है. उसी प्रकार व्रतों में हरितालिका व्रत श्रेष्ठ है. पार्वती ने पूर्व में हिमालय पर्वत पर हरितालिका व्रत किया था. (माना जाता है कि भगवान शिव ने पार्वती को उनके पूर्वजन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत की महात्म्य कथा कही थी).

              कथा के अनुसार पूर्वजन्म में पार्वती प्रजापति दक्ष और प्रसूति की पुत्री थीं और उनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था. एक बार प्रजापति दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया. सती भगवान शिव के मना करने पर भी पिता द्वारा आयोजित यज्ञ को देखने पहुंच गयीं. यज्ञस्थल पर प्रजापति दक्ष द्वारा भगवान शंकर का घोर अपमान किया गया. इस अपमान से क्षुब्ध होकर सती ने स्वयं को योगाग्नि में भस्म कर लिया. सती की मृत्यु का समाचार पाकर भगवान शंकर ने वीरभद्र नामक गण को भेजा, जिसने यज्ञ का विध्वंश कर दिया और स्वयं अखंड समाधि में चले गए. बाद में देवी सती ने ही गिरिराज हिमालय और मैना की पुत्री पार्वती के

Monday, 17 September 2012

आज चंद्रदर्शन अवश्य करें



               ये तो आप सभी जानते हैं कि गणेशचतुर्थी को चंद्रदर्शन निषिद्ध हैं. लेकिन आज की व्यस्त जीवनशैली में जब रात को देर तक बाहर रहना हो तो भूले-भटके चंद्रदर्शन हो ही जाता है (इसका उपाय अगले लेखों में) तो इसके दोष को कम करने के लिए महापुरूषों ने ऐसा बताया है कि भाद्रपद शुक्ल द्वितीया (आज 17.09.12) को चंद्रदर्शन करने से कलंकचतुर्थी के चंद्रदर्शन का दोष कम हो जाता है.

श्री विश्वकर्मा जयंती - 17.09.12



                भारत संस्कृति प्रधान देश है. हमारी संस्कृति में हर उस चीज को पूजनीय बताया गया है जिसका प्रयोग हम दैनिक जीवन में करते हैं फिर चाहे वह जल हो या अग्नि. और आवश्यक वस्तुओं के बकायदा देव भी हैं जैसे पानी के लिए वरूणदेव, अग्नि के अग्निदेव, वायु के लिए हम पवनदेव को पूजते हैं आदि. इसी तरह जीवन में यंत्रों का भी विशेष महत्व है. कलियुग का एक नाम कलयुग यानि कल का युग भी है. कल शब्द का एक मतलब यंत्र भी होता है यानि यंत्रों का युग. आप सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक हजारों यंत्रों के सहारे ही तो चलते हैं. फोन, बिजली, पानी की टंकी जैसे ना जानें कितने यंत्र हम प्रतिदिन इस्तेमाल करते हैं. तो ऐसे में यंत्रों के देव को हम भूल कैसे सकते हैं.

                भारतीय संस्कृति और पुराणों में भगवान विश्वकर्मा को यंत्रों का अधिष्ठाता और देव माना गया है. भगवान विश्वकर्मा को हिंदू संस्कृति में यंत्रों का देव माना जाता है. भगवान विश्वकर्मा ने मानव को सुख-सुविधाएं प्रदान करने के लिए अनेक यंत्रों व शक्ति संपन्न भौतिक साधनों का निर्माण किया. इनके द्वारा मानव समाज भौतिक चरमोत्कर्ष को प्राप्त कर रहा है. प्राचीन शास्त्रों में वैमानकीय विद्या, नवविद्या, यंत्र निर्माण विद्या आदि का भगवान विश्वकर्मा ने उपदेश दिया है. माना जाता है कि प्राचीन समय में स्वर्ग लोक, लंका, द्वारिका, हस्तिनापुर जैसी जगहों के भी रचयिता भगवान विश्वकर्मा ही थे.

                भगवान विश्वकर्मा की जयंती वर्षा के अंत और शरद ऋतु के शुरू में मनाए जाने की परंपरा रही है. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इसी दिन सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं.

               वास्तु के 18 उपदेष्टाओं में विश्वकर्मा को प्रमुख माना गया है. उत्तर ही नहीं, दक्षिण भारत में भी, जहाँ मय के ग्रंथों की स्वीकृति रही है, विश्वकर्मा के मतों को सहज रूप में लोकमान्यता प्राप्त है. वराहमिहिर ने भी कई स्थानों पर विश्वकर्मा के मतों को उद्धृत किया है.

          विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का वर्धकी या देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है. यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं. स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है. कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे. सूर्य की मानव जीवन संहारक रश्मियों का संहार भी विश्वकर्मा ने ही किया. राजवल्लभ वास्तुशास्त्र में उनका ज़िक्र मिलता है. यह ज़िक्र अन्य ग्रंथों में भी मिलता है.

               विश्वकर्मा कंबासूत्र, जलपात्र, पुस्तक और ज्ञानसूत्र धारक हैं, हंस पर आरूढ़, सर्वदृष्टिधारक, शुभ मुकुट और वृद्धकाय हैं—

                                कंबासूत्राम्बुपात्रं वहति करतले पुस्तकं ज्ञानसूत्रम्।
                                हंसारूढ़स्विनेत्रं शुभमुकुट शिर: सर्वतो वृद्धकाय:॥

                   विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं. विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या, बल्कि रथादि वाहन व रत्नों पर विमर्श है. विश्वकर्माप्रकाश, जिसे वास्तुतंत्र भी कहा गया है, विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है. इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं. मेवाड़ में लिखे गए अपराजितपृच्छा में अपराजित के प्रश्नों पर विश्वकर्मा द्वारा दिए उत्तर लगभग साढ़े सात हज़ार श्लोकों में दिए गए हैं लेकिन अब यह ग्रंथ 239 सूत्रों तक ही मिला है.

                                       सभी को शुभकामनाएँ...

                                                                                                      ''वशिष्ठ''

Friday, 14 September 2012

शनैश्चरी अमावस्या = 15.9.12



* शनि अमावस्या

               शनि अमावस्या के दिन श्रीशनिदेव की आराधना करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. 15 सितम्बर 2012 को शनिवार के दिन शनि अमावस्या मनाई जानी है, यह पितृकार्य अमावस्या के रुप में भी जानी जाती है. कालसर्प योग, ढैय्या तथा साढ़ेसाती सहित शनि संबंधी अनेक बाधाओं से मुक्ति पाने का यह दुर्लभ समय होता है जब शनिवार के दिन अमावस्या का समय हो जिस कारण इसे शनि अमावस्या (या शनीचरी अमावस्या या शनैश्चरी अमावस्या) कहा जाता है.

               श्री शनिदेव कर्मफल व्यवस्था में दंडाधिकारी हैं. यदि निश्छल भाव से शनिदेव का नाम लिया जाये तो व्यक्ति के सभी कष्टों दूर हो जाते हैं. श्री शनिदेव तो इस चराचर जगत में कर्मफल दाता हैं जो व्यक्ति के कर्म के आधार पर उसके भाग्य का फैसला करते हैं. इस दिन शनिदेव का पूजन सफलता प्राप्त करने एवं दुष्परिणामों से छुटकारा पाने हेतु बहुत उत्तम होता है.

              शनैश्चरी अमावस्या पर शनिदेव का विधिवत पूजन कर सभी लोग पर्याप्त लाभ उठा सकते हैं. शनिदेव क्रूर नहीं अपितु कल्याणकारी हैं. इस दिन विशेष अनुष्ठान द्वारा पितृदोष और कालसर्प दोषों से उत्पन्न कष्टों में भी न्यूनता लाई जा सकती है. इसके अलावा शनि का पूजन और तैलाभिषेक कर शनि की साढेसाती, ढैय्या और महादशा जनित कष्टों से भी मुक्ति पाई जा सकती है.


* शनि अमावस्या पितृदोष से मुक्ति में भी सहायक

              पितरों की तिथि होने के कारण अमावस्या का विशेष महत्व है और अमावस्या अगर शनिवार के दिन पड़े तो इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है. भविष्यपुराण के अनुसार शनैश्चरी अमावस्या शनिदेव को अधिक प्रिय रहती है. शनिदेव की कृपा का पात्र बनने के लिए शनैश्चरी अमावस्या को सभी को विधिवत आराधना करनी चाहिए.

              शनैश्चरी अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए. जिन व्यक्तियों की कुण्डली में पितृदोष या जो भी कोई पितृदोष की पीडा़ को भोग रहे होते हैं उन्हें इस दिन दान इत्यादि विशेष कर्म करने चाहिए. यदि पितरों का प्रकोप न हो तो भी इस दिन किया गया श्राद्ध आने वाले समय में मनुष्य को हर क्षेत्र में सफलता प्रदान करता है, क्योंकि शनिदेव की अनुकंपा से पितरों का उद्धार बडी सहजता से हो जाता है.


* शनि अमावस्या पूजन

               पवित्र नदी के जल से या नदी में स्नान कर शनिदेव का आवाहन कर अथवा मन्दिर में दर्शन कर, पूजन करना चाहिए. शनिदेव का नीले पुष्प, बेल पत्र, अक्षत अर्पण करें.
शनिदेव को प्रसन्न करने हेतु शनि मंत्र
ॐ शं शनैश्चराय नम:”,
अथवा
ॐ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय नम:
का जाप करना चाहिए. इस दिन सरसों के तैल, उडद, काले तिल, कुलथी, गुड शनियंत्र और शनि संबंधी समस्त पूजन सामग्री को शनिदेव पर अर्पित करना चाहिए और शनि देव का तैलाभिषेक अवश्य करना चाहिए. शनि अमावस्या के दिन शनि मंत्र/स्तोत्र,  हनुमान चालीसा या संकटमोचन हनुमानाष्टक आदि के पाठ भी किए जा सकते हैं. जिनकी कुंडली या राशि पर शनि की साढ़ेसाती व ढैया का प्रभाव हो ऐसे जातकों को तो शनि अमावस्या के दिन पर शनिदेव का विधिवत पूजन अवश्य ही करना चाहिए.


* शनि अमावस्या महत्व
       
             ज्योतिषशास्त्र के अनुसार साढ़ेसाती एवं ढ़ैय्या के दौरान शनि व्यक्ति को अपना शुभाशुभ फल प्रदान करता है. शनि अमावस्या बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है. इस दिन शनिदेव को प्रसन्न करके व्यक्ति शनि के कोप से अपना बचाव कर सकते हैं. पुराणों के अनुसार शनि अमावस्या के दिन शनिदेव को प्रसन्न करना बहुत आसान व विशेष होता है. शनि अमावस्या के दिन शनिदोष की शांति बहुत ही सरलता कर सकते हैं.

               इस दिन महाराज दशरथकृत या ऋषि पिप्पलादकृत शनिस्तोत्र का पाठ करके शनि की कोई भी वस्तु जैसे काला तिल, लोहे की वस्तुएँ, काला चना, कंबल, नीला फूल दान आपको शनिकृत कष्टों से बचाए रखते हैं. जो लोग इस दिन यात्रा में जा रहे हैं और उनके पास समय की कमी है वह सफर में शनिमंत्र अथवा “कोणस्थ: पिंगलो बभ्रु: कृष्णौ रौद्रोंतको यम:। सौरी: शनिश्चरो मंद: पिप्पलादेन संस्तुत:।।” मंत्र का जप करने का प्रयास अवश्य करें.


                                          || ॐ शं शनैश्चराय नम: ||


                                                                                    ''वशिष्ठ''
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Tuesday, 11 September 2012

पुरुषोत्तम मास- कृष्णपक्ष एकादशी - परमा एकादशी = 12.09.12



कथा:‌-

अर्जुन बोले : हे जनार्दन ! आप अधिकमास (पुरुषोत्तम मास) के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम तथा उसके व्रत की विधि बतलाइये. इसमें किस देवता की पूजा की जाती है तथा इसके व्रत से क्या फल मिलता है?

श्रीकृष्ण बोले : हे पार्थ ! इस एकादशी का नाम ‘परमा’ है. इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा मनुष्य को इस लोक में सुख तथा परलोक में मुक्ति मिलती है. भगवान विष्णु की धूप, दीप, नैवेध, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए. महर्षियों के साथ इस एकादशी की जो मनोहर कथा काम्पिल्य नगरी में हुई थी, कहता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो :

काम्पिल्य नगरी में सुमेधा नाम का अत्यंत धर्मात्मा ब्राह्मण रहता था. उसकी स्त्री अत्यन्त पवित्र तथा पतिव्रता थी. पूर्व के किसी पाप के कारण यह दम्पति अत्यन्त दरिद्र था. उस ब्राह्मण की पत्नी अपने पति की सेवा करती रहती थी तथा अतिथि को अन्न देकर स्वयं भूखी रह जाती थी.

एक दिन सुमेधा अपनी पत्नी से बोला: ‘हे प्रिये ! गृहस्थी धन के बिना नहीं चलती इसलिए मैं परदेश जाकर कुछ उद्योग करुँ’

उसकी पत्नी बोली: ‘हे प्राणनाथ ! पति अच्छा और बुरा जो कुछ भी कहे, पत्नी को वही करना चाहिए. मनुष्य को पूर्वजन्म के कर्मों का फल मिलता है. विधाता ने भाग्य में जो कुछ लिखा है, वह टाले से भी नहीं टलता. हे प्राणनाथ ! आपको कहीं जाने की आवश्यकता नहीं, जो भाग्य में होगा, वह यहीं मिल जायेगा’

पत्नी की सलाह मानकर ब्राह्मण परदेश नहीं गया. एक समय ऋषि कौण्डिन्य उस जगह आये. उन्हें देखकर सुमेधा और उसकी पत्नी ने उन्हें प्रणाम किया और बोले: ‘आज हम धन्य हुए. आपके दर्शन से हमारा जीवन सफल हुआ’ ऋषि को उन्होंने आसन तथा भोजन दिया.

भोजन के पश्चात् पतिव्रता बोली: ‘हे मुनिवर ! मेरे भाग्य से आप आ गये हैं. मुझे पूर्ण विश्वास है कि अब मेरी दरिद्रता शीघ्र ही नष्ट होनेवाली है. आप हमारी दरिद्रता नष्ट करने के लिए उपाय बतायें’

इस पर ऋषि कौण्डिन्य बोले : ‘अधिक मास’ (पुरुषोत्तम मास) की कृष्णपक्ष की ‘परमा एकादशी’ के व्रत से समस्त पाप, दु:ख और दरिद्रता आदि नष्ट हो जाते हैं. जो मनुष्य इस व्रत को करता है, वह धनवान हो जाता है. इस व्रत में कीर्तन भजन आदि सहित रात्रि जागरण करना चाहिए. महादेवजी ने कुबेर को इसी व्रत के करने से धनाध्यक्ष बना दिया है.’

फिर ऋषि कौण्डिन्य ने उन्हें ‘परमा एकादशी’ के व्रत की विधि कह सुनायी. ऋषि बोले: ‘हे ब्राह्मणी ! इस दिन प्रात: काल नित्यकर्म से निवृत्त होकर विधिपूर्वक पंचरात्रि व्रत आरम्भ करना चाहिए. जो मनुष्य पाँच दिन तक निर्जल व्रत करते हैं, वे अपने माता पिता और स्त्रीसहित स्वर्गलोक को जाते हैं. हे ब्राह्मणी ! तुम अपने पति के साथ इसी व्रत को करो. इससे तुम्हें अवश्य ही सिद्धि और अन्त में स्वर्ग की प्राप्ति होगी’

ऋषि के कहे अनुसार उन्होंने ‘परमा एकादशी’ का पाँच दिन तक व्रत किया. व्रत समाप्त होने पर ब्राह्मण की पत्नी ने एक राजकुमार को अपने यहाँ आते हुए देखा. राजकुमार ने ब्रह्माजी की प्रेरणा से उन्हें आजीविका के लिए एक गाँव और एक उत्तम घर जो कि सब वस्तुओं से परिपूर्ण था, रहने के लिए दिया. दोनों इस व्रत के प्रभाव से इस लोक में अनन्त सुख भोगकर अन्त में स्वर्गलोक को गये.

हे पार्थ ! जो मनुष्य ‘परमा एकादशी’ का व्रत करता है, उसे समस्त तीर्थों व यज्ञों आदि का फल मिलता है. जिस प्रकार संसार में चार पैरवालों में गौ, देवताओं में इन्द्रराज श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार मासों में अधिक मास उत्तम है. इस मास में पंचरात्रि अत्यन्त पुण्य देनेवाली है. इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और पुण्यमय लोकों की प्राप्ति होती है.

                                                 || ॐ नमो नारायणाय ||

                                                                                                 ''वशिष्ठ''
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Friday, 7 September 2012

* भाग्यवर्धक वस्तुएँ *


आज हम आपको कुछ भाग्यवर्धक वस्तुओं के बारे में बता रहे हैं जिनके प्रयोग करने से आप स्वयं अपने घर-द़फ्तर आदि के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा की वृद्धि कर सकते हैं.

1. रुद्राक्ष
2. शंख
3. घंटी
4. स्वस्तिक का चिह्न
5. ॐ का लॉकेट
6. सूर्य की मुखाकृति
7. कलश
8. गंगाजल
9. मौली (कलाई पर बंधने वाला धागा)
10. कमल गट्टे, तुलसी या रुद्राक्ष की माला
11. प्रकृति या प्रेरक व्यक्ति का चित्र।

आगे कुछ और ऐसी ही वस्तुओं के बारे में...